कलंक - ए - दर्द
कलंक ये सिर्फ मेरा ना था,
लगा ये था मेरे अपनों पे भी..
बिखरी सिर्फ़ मेरी साँसे नहीं थी,.
बिखरे उनके अरमान भी थे..
गलती तो मैं कर ही चुकी थीं,
अब आयी बारी सुधारने की है ..
हाँ,
वो रोयेंगे थोड़ा,
कुछ दिन याद करेंगे,
फिर एक बुरे वक्त का तकाजा समझ के भूल भी जाएंगे..
मैं भी उन्हें याद करूंगी,
हर रोज उन्हें बादलों से छिप के ताका करुँगी,
पर आऊंगी ना सामने उनके..
जानती हूँ मोहब्बत मुझसे उन्हें बेपनाह हैं ,
भले ही जन्म ना दिया हो पर वो मेरी माँ है,
फिर कैसे अपनी माँ को देती मैं दर्द ये,
कैसे अपने कारण लगने देती कलंक उनपे,
लड़े वो मेरे लिए ज़माने से, क्या इतना काफी ना था?
पर लड़ ना सके वो अपनो के ही ताने से, क्या वो दर्द ना था?
पाला पोसा, बड़ा किया, किया न्यौछावर जान मुझ पे,
पर कैसे वो सहते उठती उंगलियां मुझ पे
लड़ तो खैर वो रहे ही थे ज़माने से,
पर टूट चुकी थी मैं, देख के संघर्ष उनके
यूँ तो आसान ना था ये फैसला ले लेना,
किंतु यही सही था हो जाना।
मेरे साये के संग में,
छिपने लगी थी रौशनी उनकी,
मैं जानती थी,
मेरे होने से सिर्फ कठिनाइयां बांधेगी उनकी,
वो उफ़ फिर भी ना करेंगे
पर कैसे मैं इतनी स्वार्थी हो जाती,
अपने लिए उनका घर लुटवाती,
अच्छा यही था,
मेरे लिए भी
और उनके लिए भी
मेरा यहाँ से चला जाना
जहाँ का किसी के पास ना हो ठिकाना।।।
......
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