कुलीपन का अनुभव
ट्रान्सवाल और ऑरेन्ज फ्री स्टेट के हिन्दुस्तानियो की स्थिति का पूरा चित्र देने का यह स्थान नहीं हैं । उसकी जानकारी चाहने वाले को 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' पढ़ना चाहियें । पर यहाँ उसकी रुपरेखा देना आवश्यक हैं
ऑरेन्ज फ्री स्टेट में तो एक कानून बनाकर सन् 1888 में या उससे पहले हिन्दुस्तानियो के सब हक छीन लिये गये थे । यहाँ हिन्दुस्तानियो के लिए सिर्फ होटल में वेटर के रुप में काम करने या ऐसी कोई दूसरी मजदूरी करने की गुंजाइश रह गयी थी । जो व्यापारी हिन्दुस्तानी थे , उन्हे नाममात्र का मुआवजा देकर निकल दिया गया था । हिन्दुस्तानी व्यापारियों ने अर्जियाँ वगैरा भेजी , पर वहाँ उनकी तूती की आवाज कौन सुनता ?
ट्रान्सवाल में सन् 1885 में एक कड़ा कानून बना । 1886 मे उसमे कुछ सुधार हुआ । उसके फलस्वरुप यह तय हुआ कि हरएक हिन्दुस्तानी को प्रवेश फीस के रुप में तीन पौड जमा कराने चाहियें । उनके लिए अलग छोडी गयी जगह में ही वे जमीन मालिक हो सकते थे । पर वहाँ भी उन्हे व्यवहार में जमीन का स्वामित्व नहीं मिला । उन्हें मताधिकार भी नही दिया गया था । ये तो खास एशियावासियों के लिए बने कानून थे । इसके अलावा जो कानून काले रंग के लोगो को लागू होते थे, वे भी एशियावासियों पर लागू होते थे । उनके अनुसार हिन्दुस्तानी लोग पटरी (फुटपाथ) पर अधिकार पूर्वक चल नही सकते थे और रात नौ बजे के बाद परवाने बिना बाहर नहीं निकल सकते थे । इस अंतिम कानून का अमल हिन्दुस्तानियों पर न्यूनाधिक प्रमाण नें होता होता था । जिनकी गिनती अरबो मे होती थी, वे बतौर मेहरबानी के इस नियम से मुक्त समझे जाते थे । मतलब यह कि इस तरह की राहत देना पुलिस की मर्जी पर रहता था ।
इन दिनों नियमों का प्रभाव स्वयं मुझ पर क्या पड़ेगा , इसकी जाँच मुझे करानी पड़ी थी । मै अक्सर मि. कोट्स के साथ रात को घूमने जाया करता था । कभी-कभी घर पहुँचने में दस बज जाते थे । अतएव पुलिस मुझे पकड़े तो ? यह डर जितना मुझे था उससे अधिक मि. कोट्स को था । अपने हब्शियों को तो वे ही परवाने देते थे । लेकिन मुझे परवाना कैसे दे सकते थे ? मालिक अपने नौकर को ही परवाना देने का अधिकारी था । मै लेना चाहूँ और मि. कोट्स देने को तैयार हो जायें , तो वह नही दिया जा सकता था, क्योकि वैसा करना विश्वासघात माना जाता ।
इसलिए मि. कोट्स या उनके कोई मित्र मुझे वहाँ के सरकारी वकील डॉ. क्राउजे के पास ले गये । हम दोनो एक ही 'इन' के बारिस्टर निकले । उन्हे यह बाच असह्य जान पड़ी कि रात नौ बजे के बाद बाहर निकलने के लिए मुझे परवाना लेना चाहिये । उन्होने मेरे प्रति सहानुभूति प्रकट की । मुझे परवाना देने के बदले उन्होने अपनी तरफ से एक पत्र दिया । उसका आशय यह थी कि मैं चाहे जिस समय चाहे जहाँ जाऊँ, पुलिस को उसमे दखम नहीं देना चाहिये । मै इस पत्र को हमेशा अपने साथ रखकर घूमने निकलता था । कभी उसका उपयोग नहीं करना पड़ा । लेकिन इसे तो केवल संयोग ही समझना चाहिये ।
डॉ. क्राउजे ने मुझे अपने घर आने का निमंत्रण दिया । मैं कह सकता हूँ कि हमारे बीच में मित्रता हो गयी थी । मै कभी-कभी उनके यहाँ जाने लगा । उनके द्वारा उनके अधिक प्रसिद्ध भाई के साथ मेरी पहचान हुई । वे जोहानिस्बर्ग में पब्लिक प्रोसिक्युटर नियुक्त हुए थे । उनपर बोअर युद्ध के समय अंग्रेज अधिकारी का खून कराने का षड़यंत्र रचने के लिए मुकदमा चला था और उन्हें सात साल के कारावास की सजा मिली थी । बेंचरों ने उसकी सनद भी छीन ली थी । लड़ाई समाप्त होने पर डॉ. क्राउजे जेल से छूटे , सम्मानपूर्वक ट्रान्सवाल की अदालत में फिर से प्रविष्ट हुए और अपने धन्धे में लगे । बाद में सम्बन्ध मेरे लिए सार्वजनिक कार्यों मे उपयोगी सिद्ध हुए और मेरे कई सार्वजजनिक काम इनके कारण आसान हो गये थे ।
पटरी पर चलने का प्रश्न मेरे लिए कुछ गम्भीर परिणामवाला सिद्ध हुआ । मैं हमेशा प्रेसिडेंट स्ट्रीट के रास्ते एक खुले मैदान मे घूमने जाया करता था । इस मुहल्ले में प्रेसिडेंट क्रूगर का घर था । यह घर सब तरह के आडंबरो से रहित था । इसके चारो ओर कोई अहाता नही था । आसपास के दूसरे घरो मे और इसमे कोई फर्क नहीं मालूम होता था । प्रिटोरिया में कई लखपतियों के घर इसकी तुलना में बहुत बडे, शानदार और अहातेवाले थे । प्रेसिडेंट की सादगी प्रसिद्ध थी । घर के सामने पहरा देने वाले संतरी को देखकर ही पता चलता था कि यह किसी अधिकारी का घर है । मैं प्रायः हमेशा ही इस सिपाही के बिल्कुल पास से होकर निकलता था, पर वह मुझे कुछ नही कहता था । सिपाही समय-समय पर बदला करते थे । एक बार एर सिपाही मे बिना चेताये , बिना पटरी पर से उकर जाने को कहे , मुझे धक्का मारा, लात मारी और नीचे उतार दिया । मैं तो गहरे सोच में पड़ गया । लात मारने का कारण पूछने से पहले ही मि. कोट्स ने, जो उसी समय घोडे पर सवार होकर गजर रहे थे, मुझे पुकारा और कहा, 'गाँधी, मैने सब देखा हैं । आप मुकदमा चलाना चाहे तो मैं गवाही दूँगा । मुझे इस बात का बहुत खेद हैं कि आप पर इस तरह हमला किया गया ।'
मैने कहा, 'इसमे खेद का कोई कारण नही हैं। सिपाही बेचारा क्या जाने ? उसके लिए काले-काले सब एक से ही हैं । वह हब्शियों को इसी तरह पटरी पर से उतारता होगा । इसलिए उसने मुझे भी धक्का मारा । मैने तो नियम ही बना लिया हैं मुझ पर जो भी बीतेगी, उसके लिए मैं कभी अदालत में नही जाऊँगा । इसलिए मुझे मुकदमा नही चलाना हैं ।'
'यह तो आपने अपने स्वभाव के अनुरुप ही बात कहीं हैं । पर आप इस पर फिर से सोचियें । ऐसे आदमी को कुछ सबक तो देना ही चाहिये ।'
इतना कहकर उन्होने उस सिपाही से बात की औऱ उसे उलाहना दिया । मै सारी बात तो समझ नही सका । सिपाही डच था और उसके साथ उनकी बाते डच भाषा मे हुई । सिपाही ने मुझ से माफी मागी । मैं तो उसे पहले ही माफ कर चुका था ।
लेकिन उस दिन से मैने वह रास्ता छोड़ दिया । दूसरे सिपाही को इस घटना का क्या पता होगा ? मै खुद होकग फिर से लात किसलिए खाऊँ ? इसलिए मैंने घूमने जाने के लिए दूसरा रास्ता पसन्द कर लिया ।
इस घटना मे प्रवासी भारतीयों के प्रति मेरी भावना को अधिक तीव्र बना दिया । इन कायदो के बारे मे ब्रिटिश एजेंट से चर्चा करके प्रसंग आने पर इसके लिए एक 'टेस्ट' केस चलाने की बात मैने हिन्दुस्तानियो से की ।
इस तरह मैने हिन्दुस्तानियो की दुर्दशा का ज्ञान पढ़कर , सुनकर और अनुभव करके प्राप्त किया । मैने देखा कि स्वाभिमान का रक्षा चाहनेवाले हिन्दुस्तानियो के लिए दक्षिण अफ्रीका उपयुक्त देश नही हैं । यह स्थिति किस तरह बदली जा सकती हैं , इसके विचार मे मेरा मन अधिकाधिक व्यस्त रहने लगा । किन्तु अभी मेरा मुख्य धर्म तो दादा अब्दुल्ला के मुकदमे को ही संभाले का थी ।
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