आत्मिक शिक्षा

विद्यार्थियो के शरीर और मन को शिक्षित करने की अपेक्षा आत्मा को शिक्षित करने मे मुझे बहुत परिश्रम करना पड़ा । आत्मा के विकास के लिए मैने धर्मग्रंथो पर कम आधार रखा था । मै मानता था कि विद्यार्थियो को अपने अपने धर्म के मूल तत्त्व जानने चाहिये , अपने अपने धर्मग्रंथो का साधारण ज्ञान होना चाहिये। इसलिए मैने यथाशक्ति इस बात की व्यवस्था की थी कि उन्हे यह ज्ञान मिल सके । किन्तु उसे मै बुद्धि की शिक्षा का अंग मानता हूँ । आत्मा की शिक्षा एक बिल्कुल भिन्न विभाग है । इसे मै टॉल्सटॉय आश्रम के बालको को सिखाने लगा उसके पहले ही जान चुका था । आत्मा का विकास करने का अर्थ है चरित्र का निर्माण करना , ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना । इस ज्ञान को प्राप्त करने मे बालको को बहुत ज्यादा मदद की जरूरत होती है और इसके बिना दूसरा ज्ञान व्यर्थ है, हानिकारक भी हो सकता है , ऐसा मेरा विश्वास था ।
मैने सुना हैं कि लोगो मे यह भ्रम फैला हुआ है कि आत्मज्ञान चौथे आश्रम मे प्राप्त होता है । लेकिन जो लोग इस अमूल्य वस्तु को चौथे आश्रम तक मुलतवी रखते है, वे आत्मज्ञान प्राप्त नही करते , बल्कि बुढ़ापा और दूसरी परन्तु दयाजनक बचपन पाकर पृथ्वी पर भाररूप बनकर जीते है । इस प्रकार का सार्वत्रिक अनुभव पाया जाता है । संभव है कि सन् 1911-12 मे मै इन विचारो को इस भाषा मे न रखता , पर मुझे यह अच्छी तरह याद है कि उस समय मेरे विचार इसी प्रकार के थे ।
आत्मिक शिक्षा किस प्रकार दी जाय ? मै बालको से भजन गवाता , उन्हें नीति की पुस्तकें पढकर सुनाता , किन्तु इससे मुझे संतोष न होता था । जैसे-जैसे मै उनके संपर्क मे आता गया, मैने यह अनुभव किया कि यह ज्ञान पुस्तको द्वारा तो दिया ही नही जा सकता । शरीर की शिक्षा जिस प्रकार शरीरिक कसरत द्वारा दी जाती है और बुद्धि को बौद्धिक कसरत द्वारा , उसी प्रकार आत्मा की शिक्षा आत्मिक कसरत द्वारा ही दी जा सकती है । आत्मा की कसरत शिक्षक के आचरण द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है । अतएव युवक हाजिर हो चाहे न हो , शिक्षक तो सावधान रहना चाहिये । लंका मे बैठा हुआ शिक्षक भी अपने आचरण द्वारा अपने शिष्यो की आत्मा को हिला सकता है । मैं स्वयं झूठ बोलूँ और अपने शिष्यो को सच्चा बनने का प्रयत्न करूँ, तो वह व्यर्थ ही होगा । डरपोक शिक्षक शिष्यो को वीरता नही सिखा सकता। व्यभिचारी शिक्षक शिष्यो को संयम किस प्रकार सिखायेगा ? मैने देखा कि मुझे अपने पास रहने वाले युवको और युवतियो के सम्मुख पदार्थपाठ-सा बन कर रहना चाहिये । इस कारण मेरे शिष्य मेरे शिक्षक बने । मै यह समझा कि मुझे अपने लिए नही , बल्कि उनके लिए अच्छा बनना और रहना चाहिये । अतएव कहा जा सकता है कि टॉल्सटॉय आश्रम का मेरा अधिकतर संयम इन युवको और युवतियों की बदौलत था ।
आश्रम मे एक युवक बहुत ऊधम मचाता था , झूठ बोलता था, किसी से दबता नही था और दूसरो के साथ लड़ता-झगड़ता था । एक दिन उसने बहुत ही ऊधम मचाया । मै घबरा उठा । मै विद्यार्थियो को कभी सजा न देता था । इस बार मुझे बहुत क्रोध हो आया । मै उसके पास पहुँचा । समझाने पर वह किसी प्रकार समझता ही न था । उसने मुझे धोखा देने का भी प्रयत्न किया । मैने अपने पास पड़ा हुआ रूल उठा कर उसकी बाँह पर दे मारा । मारते समय मै काँप रहा था । इसे उसने देख लिया होगा । मेरी ओर से ऐसा अनुभव किसी विद्यार्थी को इससे पहले नही हुआ था । विद्यार्थी रो पड़ा । उसने मुझसे माफी माँगी । उसे डंड़ा लगा और चोट पहुँची, इससे वह नही रोया । अगर वह मेरा मुकाबला करना चाहता , तो मुझ से निबट लेने की शक्ति उसमे थी । उसकी उमर कोई सतरह साल की रही होगी । उसकी शरीर सुगठित था । पर मेरे रूल मे उसे मेरे दुःख का दर्शन हो गया । इस घटना के बाद उसने फिर कभी मेरी सामना नही किया । लेकिन उसे रूल मारने का पछतावा मेरे दिल मे आज तर बना हुआ है । मुझे भय है कि मारकर मैने अपनी आत्मा का नही, बल्कि अपनी पशुता का ही दर्शन कराया था ।
बालको को मारपीट कर पढाने का मै हमेशा विरोधी रहा हूँ । मुझे ऐसी एक ही घटना याद है कि जब मैने अपने लड़को मे से एक को पीटा था । रूल से पीटने मे मैने उचित कार्य किया या नही , इसका निर्णय मै आज तक कर नही सका हूँ । इस दंड के औचित्य के विषय मे मुझे शंका है , क्योकि इसमे क्रोध भरा था और दंड देने की भावना था। यदि उसमे केवल मेरे दुःख का ही प्रदर्शन होता, तो मै उस दंड को उचित समझता । पर उसमे विद्यमान भावना मिश्र थी । इस घटना के बाद तो मै विद्यार्थियो को सुधारने की अच्छी रीति सीखा । यदि इस कला का उपयोग मैने उक्त अवसर पर किया होता, तो उसका कैसा परिणाम होतो यह मै कर नही सकता । वह युवक तो इस घटना को तुरन्त भूल गया । मै यह नही कर सकता कि उसमे बहुत सुधार हो गया , पर इस घटना ने मुझे इस बात को अधिक सोचने के लिए विवश किया कि विद्यार्थी के प्रति शिक्षक को धर्म क्या है । उसके बाद युवको द्वारा ऐसे ही दोष हुए, लेकिन मैने फिर कभी दंडनीति का उपयोग नही किया । इस प्रकार आत्मिक ज्ञान देने के प्रयत्न मे मै स्वयं आत्मा के गुण अधिक समझने लगा ।

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