5. ख़ज़ाना

एक राज़ की बात बताना है,
श्श्श! मेरे पास भी एक ख़ज़ाना है।
थोड़ा सा बेधड़क, तो थोड़ा सकुचाता,
वहाँ बचपन के लम्हों का एक पिटारा है।

सिक्कों की खनक सी उसमें,
बेपरवाह सी मुस्कुराहट है।
सोने की चमक सी उसमें,
निश्छल नैनों की जगमगाहट है।

अंतरंगी वो खेल-कूद,
जमकर लगते वो हंसी-ठहाके।
मानो होली के बिखरे हों रंग,
और दिवाली के हों जलते फुलझड़ी-पटाखे।
कभी था वो तकियों से बना गुड़िया का छोटा-सा घर,
तो कभी बारिश में तैरती थी अपनी काग़ज़ की नाव।
अरमां था बस पंख लगा उड़ चलें हम,
ज़मीं पर कहाँ पड़ते ही थे चंचल ये पाँव।

मगर धीरे-धीरे कुछ संदूक,
अब खाली हो चले हैं मेरे।
हर जगह है ख़ज़ाने की चमक,
फिर भी कुछ कोनों में पसरे हैं अंधेरे।
बिखरे मोती के समान,
कुछ फिसलते हुए नाते हैं।
जितना भी चाहो पकड़ना इन्हें,
कुछ-ना-कुछ बस छूट ही जाते हैं।

बीते दिनों के ये अनमोल लम्हे,
मैं भी आज चुरा लूँ क्या?
जेब में भर चुपके से इन्हें,
खोने से पहले छुपा लूँ क्या?
एक राज़ की बात बताना है,
श्श्श! मेरे पास भी एक ख़ज़ाना है।

© गरुणा सिंह (Stella)

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