मंज़िल

"बधाई हो आखिर तुम्हे तुम्हारी मंज़िल मिल ही गयी"

उसके ये शब्द मुझे एक भयंकर झंझावात में डाल गए?

क्या सच ही में मेरी मंज़िल ये ही थी, जिसके लिए मैंने अपने पूरे जीवन मेहनत की..... जिसके लिए मैं तरसी।

आज भी याद है मुझे, जब मैंने बी.ए आनर्स , बी.एड की परीक्षा में उत्र्तीण की थी। क्या हँसी और खुशी थी पापा के चहरे पर। पुरे घर मौहल्ले में मिठाई बाटी थी उन्होंने। आखिर उनकी एक-लौती बेटी ने घर में सबसे ज़्याद पढ़ाई कर उनका सर जो गर्व से ऊँचा किया था। उनके लिए हमेशा मैं सबसे अच्छी और होनहार बेटी थी। फिर एक दिन उन्हें मेरे प्रेम सबंध के बारे में मैंने बताया। सारे परिवार ने न जाने कितने ताने कसे, उन्हें कितनी बातें सुनाई।

बुआ कह उठी,"और पढ़ाओ बेटी को नतीजा मिल गया ना..... इसलिए कहती थी जल्दी शादी करा दो, पर मेरी कौन सुनता है?"

चाची ने मौका पाकर छोटे भाई को पापा के विरुद्ध खड़ा कर दिया। मामा ने अपने घर बुला न जाने कितना मारा। पर जैसे ही पापा को पता चला वे अगले दिन सुबह मुझे ले गए।

सारे रिस्तेदारो ने मौका पा मुझ पर ऊँगली उठानी चाही,पर यदि कोई चुप रहे तो वो थे मेरे पापा। मुझे भी स्वयं इन रिश्तेदारों के अनर्गल प्रलाप से कोई अर्थ न था.... मेरे लिए तो सिर्फ कुछ मतलब रखता था, तो वो था मेरे पापा का निर्णय।

पापा ने मुझसे और कुछ नही कहा सिवाय, "मैं सिर्फ लड़का देखुंगा , परिवार तुम्हे देखना है।" फिर क्या था, पापा राज से मिले, करीबन- करीबन दो घंटे चली मीटिंग के बाद पापा ने राज को हामी दी और हमारी शादी संपन्न हुई।

मेरी शादी में कोई कमी न थी, सिवाय मेरे पापा के। मेरे जीवन के सबसे महतवपूर्ण छण में, मेरी जीवन के सबसे महतवपूर्ण व्यक्ति को शामिल नही होने दिया गया।चाहते तो वो हो सकते थे पर उन्होंने इस सजा को चुपचाप स्वीकार कर लिया, ये सोच कर के उनकी बेटी अपने मनपसंद जीवन साथी के साथ सदा ख़ुशी का जीवन बिता पायेगी।

कितनी बड़ी विडम्बना थी की मेरे जीवन के इन सार्थक छण में वे सभी निर्थक रिश्तेदार तो थे पर मेरे जीवन के अवलम्भ मेरे पिता ही न थे।

बाबुल ये कैसी रीत अपनाई तूने?

देकर मुझे जीवन भर की ख़ुशी,

अपनी तन्हाई की सजा बढ़ाई

अपने जीवन के इतने वर्षो में मेरी डोली उठाने के सपने सजाते रहे,

पर जब उठी मेरी डोली तुम ही अनुपस्थित रहे।

समाज ने ये कैसा दर्द पिता-पुत्री को दिया,

अपनी कन्या का कन्यादान करने का हक़ एक पिता से छिना !

दूर थी फिर भी जानती थी तेरे हृदय को,

पहचान लिया हवा के संग आये तेरे स्नेह को।

ये मेरे पापा के ही संस्कार थे कि ढल गयी मैं एक नए माहौल में, यहाँ मेरे मायके जैसी आज़ादी नही थी, अपितु एक बंदिश का माहौल था, पर मैं चुप चाप इसमें ढल गयी ये सोच कर कि राज या पापा को कुछ सुनना ना पड़े। माना था मैंने सास को माँ और ननद को बहन, पर अब लगता है कि वे स्वीकार न कर सके थे मुझे। उनके लिए मौन सिर्फ राज की पत्नी थी, और एक अन्य सामाज से आई हुई लड़की।

फिर भी राज के स्नेह से मैंने हमारा नया संसार बसाया, और एक नन्ही सी परी को अपने हिण्डोले में मैंने खिलाया।

सब कुछ ठीक था पर क्या समय कभी एक जैसा रहता है? माँ का साया तो बचपन में ही उठ गया था और एक दिन अचानक तबीयत ख़राब होने की वजह से पापा भी मुझे छोड़ कर चले गये।

किसी तरह मैंने खुद को संभाला और फिर समय का चक्र घुमा। मेरी खुशहाल चल रही ज़िन्दगी में एक तूफान आया।अपने ही भाइयों द्वारा दिये गए धोखे ने राज को तोड़ दिया, और इसका असर उनके तबीयत पर आने लगा। फलतः धीरे धीरे उनका काम भी बंद हो गया और मैंने गृहस्थी का भार अपने कंधो पर लिया।

आज एक बार फिर मुझे पापा की याद आई और मैंने उन्हें मन ही मन नमन किया क्योंकि आज उनकी दी हुई संस्कार और शिक्षा के ज्ञान ने मुझे मेरे पैरों पर खड़े होने की ताक़त दी। मैं जानती थी पापा हमेशा मेरे साथ है, मुझे अपने आशीर्वाद से नवाज रहे है।

हँस कर मैंने अपने कार्य की शुरुवात की। बी.एड तो पापा ने कराया ही था तो बस टीचर की नौकरी कर ली। राज के ऊपर आ रही हर मुसीबत के आगे मैं ढ़ाल बनके खड़ी हो गयी। अपना पत्नी धर्म समझ कर खुद भले ही उन तुफानो में बिखर गयी, पर राज पर एक आंच न आने दी।

धीरे धीरे हम आर्थिक तंगी से उभरने लगे, पर अचानक राज का व्यवहार भी बदलने लगा था। धोखे के बाद जिस भाई से उनका विश्वास उठ गया था, उसी भाई ने राज को न जाने कौन-सा पाठ पढ़ा दिया था, कि राज को मेरा हर कदम गलत लगने लगा।

सात फेरो के वचनो का
फ़र्ज़ बखूबी निभाया मैंने
जाने क्यों तुम्हारा मन रीता रह गया ?

पहले मैने सोचा कि ये मेरा भ्रम है, और इसे अनदेखा कर दिया। मैं सफलता की उचाईयों को छु रही थी, पर शायद राज के भीतर सोया हुआ उसका अहं जग गया था।

पुरुषोचित दंभ तुम्हारा
जाने तुम्हे कहाँ ले गया
मैं देखती ही रह गयी
खुली आँखों से
प्यार का आसमान ढह गया

कभी कभी सोचती थी क्या पापा ने अपनी गुड़िया के लिए ये ही सपने देखे थे ? क्या पापा ने कभी सोचा भी होगा जिस बेटी को वो सर का ताज बना कर रखते थे आज वो किसी और के लिए धूल समान भी नही बची थी !

क्या पापा आज होते तो मुझे इस तरह देख क्र खुश होते? फिर खुद को ये सांत्वना देकर शांत कर लेती, कि अवश्य पापा खुश होते ये देख कर कि उनकी बेटी इन कठिन परिस्थिति मे भी हार नही मान रही है बल्कि उसका डट के सामना कर रही है।

उस दिन जब मुझे मेरी सफलताओ का फल मिला तब राज का वो पुरूषोचित दंभ बोल उठा।

राज-"ये ही थी न तुम्हारी मंज़िल? पा लिया न तुमने सब कुछ अब तो खुश हो?"

इतना कह कर वो अपने कमरे में चला गया, और उसने दरवाज़ा बंद कर दिया। मैं कहना चाहती थी काफी कुछ पर शब्द मेरी ज़ुबांन में जम गए थे।

व्यथा काश तुम समझ पाते
जीवन जैसे ठगा गया
कितना कुछ अनकहा रह गया !

मैं बाहर खड़ी सोच रही थी, "क्या हमारे प्यार का जहान इतना ही था? क्या सच में पापा आज खुश होंगे? क्या ये ही भविष्य उन्होंने अपनी बेटी के लिए सोचा था ? क्या इसी की कामना की थी उन्होंने?"

जाने अनजाने मैं सफलता की सीढ़ी चढ़ती चली जा रही थी, राज के लिए,अपनी बेटी के लिए, पर पता नही कब और कैसे मैं राज के दिल में पनप रहे इस शक को भाँप ही नही पाई । आज जैसे लगा के मेरे जीवन का कोई अर्थ ही नही बचा था, जिसके लिए मैंने मेरे पापा को चोट पहुचाई आज उसकी नज़र में मेरी कोई कीमत ही नही थी ..... जिसके नज़रो में अपने लिए प्यार को मैं जीवन भर ढूंढती रही आज समझ में आया वो तो अग्नि के सात फेरों के साथ ही जल गया था अब बचा था तो सिर्फ उसका अहंकार।

बंद मुठी में
अनेक सपने बंधे थे
खुली हथेली
लहुलुहान रह गई
सब कुछ होते हुए भी
कुछ नही रहा
कितना कुछ अनकहा रह गया।

अपने विचारो में खोई हुई थी अपने जीवन की निरर्थकता की गहराई को भाँप रही थी, कि तभी पीछे से अठरह वर्षीया आरोही ने आ कर मुझे गले लगा लिया और चहक उठी, "बधाई हो मम्मी आई ऍम सो प्राउड ऑफ़ यु !"

उसके ये शब्द न जाने कैसे,न जाने कब मेरे जीवन को एक अर्थ दे गए। आज पापा को वाकई मुझ पर गर्व हो रहा होगा कि उनकी बेटी ने अपनी एक पहचान पायी है और जो संस्कार उसमे थे उसने अपनी बेटी को भी दिए है।

आज सही में मुझे मेरी मंज़िल मिल गयी। मेरी बेटी का साथ मिला और अपनी एक पहचान मिल गयी ।

उस समय चली हवा में मुझे लगा जैसे एक बार फिर पापा ने अपने स्नेहिल हाथो को मेरे सर पर फेर कर मुझे आशीर्वाद दिया हो। आज मैं अकेली नही मेरे पापा और मेरी बेटी मेरे साथ है, सही कहा तुमने राज मेरी मंज़िल मुझे मिल ही गयी ।

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