जाने क्यों

जाने क्यों भीड़ में भी तन्हा हूँ
अपनों के बीच बेगानी हूँ
कहने को तो दोस्त बहुत है
पर वो हमदर्द कहा!

घर का कमरा बस एक अपना है
जहां दिन रात गुजर जाता है
मन शांत है फ़िर भी शोर है
आँखों में नमी है पर आँसू सुख गए है

कहना तो बहुत कुछ चाहती हूँ
पर सामने वाले की सोच से डरती हूँ
बात लबों पे आते आते रुक जाती है
मैं फ़िर अपने सवालों में उलझ जाती हूँ

जाने क्यों भीड़ में भी तन्हा हूँ
अपनों के बीच बेगानी हूँ!

- पलक

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