मैंने पायल है छनकाई अब तो आजा तू हरजाई

१९९७

फिर वही सन्देश. अनिरुद्ध जब भी पूना ऑफिस से अपने घर सावंतवाड़ी आता और वजन की मशीन इस्तेमाल करता, तो हर बार वेट टिकट पर यही सन्देश आता था.

"आपकी प्रकृति शांत सीधे और गंभीर स्वाभाव के मनुष्य की है. कृपया अपने जीवन में हास परिहास को भी स्थान दें."

--------

One-Two Three Four...One two थ्री फोर....

सुधीर ने नीचे से आवाज़ दी, "अरे अश्लेषा. चाय पी लो. शाम के पांच बज गए हैं . अपनी सहेलियों को बाद में डांस सिखा देना ."

तभी अश्लेषा ने छत से आवाज़ दी, "बाबा कॉलेज फंक्शन के इतने कम दिन बाकी हैं और मेरे अलावा सब कुछ कुछ स्टेप्स भूल रहे हैं. आज चाय आप अकेले पी लो." और अश्लेषा फिर डांस सीखने लगी.

तभी टेप अचानक चलते चलते रुक गया.

"उफ़...", अश्लेषा ने कहा , "लगता है कैसेट फँस गयी." पेन कैसेट में डालकर घुमाने पर भी कैसेट से खर्र खर्र की आवाज़ ही आती रही.

"बाबा," अश्लेषा चलते चलते बोली, "मैं नयी कैसेट में परफॉरमेंस वाला गाना भरवाने जा रही हूँ."

"पर बेटा ?"

"बाय बाबा!"

अश्लेषा जा ही रही थी की एक क्रीम शर्ट और काला पैंट पहने लम्बे लड़के से टकराई.

"अरे अश्लेषा तुम?"

"अनिरुद्ध, आप पूना से कब लौटे ? अच्छा मैं घर आकर आपसे मिलती हूँ..."

"पर अश्लेषा..."अनिरुद्ध की पुकार का इस बार भी कोई जवाब न आया. आता भी कैसे, अश्लेषा तो एक हवा का झोंका थी और अनिरुद्ध गहरा समुन्दर जो चाहकर भी हवा के साथ नहीं चल सकता. बस हवा की शरारतें उसके मन में लहरें ही उठा सकती हैं. वैसे नीले सूट और बड़े बड़े झुमकों में अश्लेषा बड़ी सलोनी लग रही थी मगर अनिरुद्ध को तो अश्लेषा हमेशा ही परियों सी लगती थी.

कानों में पड़ने वाले समुन्दर के शोर ने जैसे अनिरुद्ध के मन में सावन ला दिया. कहते हैं इंसान समुन्दर से दूर जा सकता है मगर...समुन्दर ...समुन्दर इंसान से दूर कभी नहीं होता. और समुन्दर के अलावा अनिरुद्ध का दिल भी तो यहां सावंतवाड़ी में
ही छूट गया था...

Bạn đang đọc truyện trên: AzTruyen.Top