पतझड़
पतझड़ लगी है दिल में
स्मृतियों के पत्ते झड़ते हैं
तन्हाई के मौसम में,
कभी हँसती हैं
वो यादें
दिल के कैनवास पे,
कभी रोती हैं
वे सुकोमल बातें
तकिए के आँचल में,
झूमता है कभी
मन-मयूरा
आने वाली वर्षा के स्वागत में,
और कभी
बुझा-सा रह जाता है मन-परिंदा
उम्मीद की नीड़ के टूट जाने से,
पतझड़ लगी है यादों की
मौसम के हर ख़ज़ाने में,
बंद हैं पिटारे कई
भेद के मौन आग्रह में।
– वृंदा मिश्रा
(VRINDA MISHRA)
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