पंक्तियाँ

ये जो पंक्तियों में मेरी
तुम्हारा नाम अकस्माक ही आ जाता है
और मेरी हर रचना में
अपना अक्स छोड़ जाता है,
सोचा है कभी,
यह तुम्हारा खेल
मेरे मासूम हृदय को
कितनी दफा घायल कर जाता है!
यह जो तुम्हारी आदत है न
हर वाक्य में अपना वाकया छिपाने की
और दो शब्दों के बीच
लोगों से छिप कर कुछ छेड़खानी कर जाने की,
सोचा है कभी
इससे लेखिका की क्या हालत होती है,
रचना तो वह कलम से रच देती है
पर उसके अंदर की मीरा
उस रचना को गुनगुनाने की हिमाक़त नहीं करती है।

वृंदा मिश्रा
(VRINDA MISHRA)

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