मैं सीता हूं।
बनारस की गलियों से गुजरते वक्त एक लड़के ने हाथ खींचकर पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है?"
अपना बुरखा संभालते हुए, सख़्ती से हाथ छुड़ाकर मैंने कहा, "जनाब नाम में क्या रखा है? आखिर हूं तो मैं सीता ही।"
इस पर वह सोचने लगा, और कहा, "पर तुम तो मुसलमान हो, तुम हमारी सीता मैय्या कैसे हो सकती है?"
मन तो काफ़ी हो रहा था कहने का कि,
हर रोज़ हजारों रावणो से अपनी आबरू बचाकर, अपने ही पति को जब अपनी पवित्रता का प्रमाण देना पड़े,
तब समझ में आएगा कि, मैं भी सीता हूं।
हर रोज़, हर जगह, जब कोई तुम्हें ग़लत तरीक़े से छुए, और तुम कुछ ना कर सको,
उस वक्त आंखों में जो दर्द, जो आक्रोश, अश्रु के रूप में बाहर आए, किसी ज्वालामुखी से कम नहीं होता।
उस ज्वालामुखी को जब, "ग़लती तुम्हारी ही थी," कहकर और भड़काया जाए, तब मालूम होगा, कि मैं भी सीता हूं।
मन तो काफ़ी था कहने का, बस कहा नहीं।
सिर्फ पलटकर लौटने लगी।
वहीं दूर खड़ी एक लड़की यह सब कुछ देख रही थी, पास आकर उसने पूछा, "आपी, आपने उसे मारा क्यों नहीं?"
मुस्कुराकर मैंने कहा, "जाने दो, रावण से दूर रहना चाहिए।"
कुछ दूर तक हम दोनों साथ चलें, फ़िर उस लड़की ने मुझसे मेरा नाम पूछा,
हंस कर मैंने कहा, "जानकी"।
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