131 || Vαƚ Sαʋιƚɾι
Hey Guys!!!!
Here is the hundred and thirty first chapter.
I don't own Mahabharat.
This chapter is going to be long, brace yourself!
Happy Reading!!
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Third POV
Three days later
In Jungle.
When Karn woke up that day, he was surprised by the odd request Ananya made to him. She had asked him to get her five different types of flowers on his return from his daily prayers.
"Tumhe panch prakar ke phool Kyun chahhiye?" (Why do you need five types of flowers?) Karn questions.
"Puja karni Hai." (I need to pray.) Karn raises an eyebrow at the answer but nods along.
When Duryodhana woke up and went to look for his Bhabhi, he did not expect her to ask for Chandan. It was a sudden demand but Yudhishthira knew that there was a temple near by and he could ask for some Chandan from there.
The Pandeva's were woken up by their Bhabhi and instructed to take a bath before going out to look for five different types of fruits for her.
Never having heard such a request from their Bhabhi Ma, before the brothers rushed to full fill it.
When Kunti returned from her bath and completion of daily routines she saw her daughter- in- law sitting near the small temple area they had built and was making some things. Some things from flowers and leaves?
The brothers returned surprisingly together with the asked items, they faced a little difficulty but they had been first time demanded for such things from her, they could in no way so no to her.
They retuned to see for once their Bhabhi was not wearing the saree, she did every day; it was a plain red colored saree. But why?
Karn noticed how she was wearing the jewelry she had taken off when they came to the forest. She had said that she would not take them out until there was a major reason. So, what happened? Why did she take them out?
"Are, tum log wapas aa Gaye! Bahut Achcha" (Oh! You guys are back! Very Good!) Kunti declares in surprise as she sees them.
"Jaldi aao!" (Come on fast.) She urges them to walk closer. The brothers were confused by the whole setting but they did as instructed.
"Anu?" Karn looks at her wife, confused and lost.
Who hums in reply with out looking up from where she was arranging things in front of the Banyan tree, beside their small temple.
"Yeh Kya Ho raha Hai?" (What is happening here?) This time Ananya looks up at him, and smiles.
"Aaj Vat Savitri Hai." (Today is Vat Savitri.) She says, looking at all of them happily.
"Woh Kya hota Hai?" (What is that?) Duryodhana questions instantly.
"Aaj ke din Vivahit stree, aapne pati ke lambe umar ke liye vatr rakhti Hai." (Today, a married lady keeps a fast for her husbands long life.) Ananya answers the question smiling at them all.
"Toh fir yeh sab kis liye?" (Then what is this all for?) Bheema questions.
"Bhabhi Ma, Puja bhi toh karegi na!" (Bhabhi Ma, has to pray also, na!) Sehdev deadpans her elder brother.
"Par Vat Savitri, Mata ne kabhi nahi Kiya." (But mother, never did anything like Vat Savitri.) Yudhishthira frowns.
"Kaliyuga Mein toh hota Hai." (It does happen in Kaliyuga.) Ananya says. "Iske piche ek kahani Hai, puja shuru Ho toh woh bhi suna dungi tum sab ko." (There is a story behind it, let me start with the puja, I will tell you guys the story too.)
This got them all moving, they really wanted to know the story behind this Vat Savitri puja thing, their Bhabhi Ma was talking about.
They sat there noting at what their Bhabhi Ma was doing.
Ananya sat crossed leg in front of the Banyan tree and started to arrange everything in the bamboo basket they had got the other day. At last covering the basket with a brand new cloth.
"Arya, Mujhe char pate de dijye Bargad ke ped se." (Dear, please give me four leaves of the Banyan tree.) Ananya appeals, lighting Diya.
"Char?" (Four?) Karn asks as he hands her the freshly broken washed leaves of Banyan.
Ananya accepts it smiling brightly at her husband and tucks one leaf in her hair while placing the left three leaves in front of her.
She closes her eyes and hands praying for few minutes, silently.
She then offers Akshat, soaked Chana, Haldi, Kum- Kum and Roli in front of the banyan tree and does the same to the three leaves. Along with the flowers.
She again closes her eyes and prays as everyone behind her sits crossed legged waiting for her to finish, so that they could hear the story.
This time when she opens her eyes she stands up and picks up the bamboo fan, ensuring that the Diya was at a safe distance, she gently fans the banyan tree, moving her hands to and fro.
Before picking up a cotton thread bunch, they did not know she had. She tied the thread in one of the lower branches of the banyan tree before she starts to do parikrama of the Banyan tree, the thread wrapping itself around the plant.
Once done with it, she fanned the tree again and once again came to sit in front of where she had been sitting crossed leg.
This time she offered Paan leaves, supari, jaggery and a coin of bronze.
Her eyes closed and head bowed in respect as she prayed once again.
She turned to them and signaled them to come closer, "Kahani shuru karein?" (Should I start with the story?)
When they nod, she smiles at them all and takes a deep breath before beginning on to with the story.
"यह व्रत और पूजा 'सावित्री' की याद में अपने पति के लम्बी आयु के लिए की जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार, सावित्री ने अपने पति सत्यवान की रक्षा मृत्यु से की थी। हिन्दू धर्म में महिलाओं का मानना है कि सावित्री की तरह ही अगर वे भी यही समर्पण दिखाएंगी और उपवास करेंगी तो उनके पति सुरक्षित और समृद्ध रहेंगे।
इस अनुष्ठान में, बरगद के पेड़ के चारो तरह कपास के धागे को बंधते हुए परिक्रमा करने के दौरान सावित्री और सत्यवान की कथा सुनने की भी परंपरा है। यह कथा भगवान शिव ने माता पार्वती के अनुरोध पर उन्हें सुनाया था।"
"Sahi Mein Bhabhi Ma?" (Is that the truth, Bhabhi Ma?) Arjun questions.
"Logon ne kaha toh yahi Hai." (People have said this only.) Ananya shrugs, "Ab main shuru karoon?" (Should I start now?)
They all nod excited of this prospect.
एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से कहा- 'हे देवताओं के भी देवता, जगत के पति शंकर भगवान! प्रभास क्षेत्र में स्थित ब्रह्माजी की प्रिया जो सावित्री देवी हैं, उनका चरित्र आप मुझसे कहिए। जिसमें उनके व्रत का माहात्म्य हो और उनके सम्बन्ध का इतिहास हो एवं स्त्रियों के पातिव्रत्य को देने वाला, सौभाग्यदायक और महान उदय का करने वाला हो |'
तब शकर भगवान ने कहा– 'हे महादेवी! प्रभासक्षेत्र में स्थित सावित्री के असाधारण चरित्र को मैं तुमसे कहता हूँ। हे महेश्वरि! सावित्री-स्थल नामक स्थान में राजकन्या सावित्री ने जिस प्रकार से उत्तम वट सावित्री व्रत का पालन किया।
मद्र (मद्रास) देश में एक धमात्मा, सभी प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाला, राजधानी तथा राज्य में रहने वाली प्रजाओं का प्रिय अश्वपति नाम का राजा था, जो कि क्षमाशील, संतानरहित, सत्यवादी और इन्द्रियों को वश में रखने वाला था। एक सयम वह राजा प्रभासक्षेत्र की यात्रा के निमित्त वहाँ पर आया और विधिपूर्वक यात्रा करता हुआ सावित्री के स्थल पर पहुँचा। वहाँ पर उस राजा ने अपनी रानी के साथ इस व्रत को किया, जो सावित्री के नाम से (सावित्री व्रत से) प्रसिद्ध सभी प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है।
भूर्भुवः स्वः (भूलोक, भुवलोंक, स्वलोक) इस मंत्र की साक्षात् मृर्ति बन कर स्थित श्रीव्रह्माजी की प्रिया सावित्री देवी उस राजा पर प्रसन्न हुई। कमण्डलु को धारण करने वाली वह सावित्री देवी दर्शन देने के बाद पुनः अदृश्य हो गई और बहुत दिनों के बाद उसी राजा के यहाँ देवी के समान रूप वाली कन्या के रूप में उत्पन्न हुई।
सावित्री की प्रसन्नता से प्राप्त तथा सावित्री की पूजा करने के बाद हुई, अंत: राजा ने ब्राहाणों की आज्ञा से अपनी उस कन्या का नाम भी सावित्री रखा। वह राजकन्या सावित्री साक्षात् शरीर धारण की हुई लक्ष्मी के समान शोभित होती हुई बढ़ने लगी और धीरे-धीरे सुकुमार अँगोवाली वयोवनावस्था को प्राप्त हुई जो अत्यन्त सुन्दर थी और सुबर्ण की प्रतिमा के समान दिखाई पड़ती थी। लोग उसे देखकर यही समझते थे कि यह कोई देवकन्या है।
कमल के समान विशाल नेत्रों वाली एवं तेज से अग्नि के समान तेजस्वी हुईे वहसावित्री महर्षि भृगु द्वारा कहे गए सावित्री व्रत को करने लगी। व्रत के आरम्भ में सुन्दर वर्ण वालीं उसे उपवास करके शिर से स्नान की हुई सावित्री देवता की प्रतिमा के पास जाकर अग्नि में हवन करके ब्राह्मणो से स्वस्तिवाचन कराया और उन ब्राह्मणों से अवशिष्ट पुष्पांजलि ग्रहण करके सखियों से घिरी हुई, लक्ष्मीदेवी के समान सुन्दररूप से सुशोभित हुई, वरारोहा वह राजकन्या समीप में जाकर पिता के चरणों में प्रणाम कर प्रथम पुष्पांजलि को निवेदित कर, हाथ जोड़कर राजा के पाश्श्व में स्थित हुई।
युवाबस्था को प्राप्त हुई देखकर राजा ने उसके विषय में मंत्रियों से सलाह की और राज कन्या से कहने लगा– हे पुत्री! तुम्हें योग्य वर देने का समय आ गया है। मुझसे कोई (तुम्हारे तेज से आकर्षित होकर) तुम्हें माँगने के लिए भी नहीं आता और मैं भी विचार करने पर तुम्हार आत्मा के अनुरूप वर को नहीं पा रहा हूँ। अत: हे पुत्री! देवताओं के निकट मैं जिस तरह निन्दनीय न होऊ, वेसा तुम करो। मैंने धर्मशास्त्रों में पढ़ा और सुना भी है कि यदि पिता के गृहमें रहती हुई विवाहके पहले ही जो कन्या रजाधर्म से युक्त हो जाती है, वहशूद्रा के समान समझी जाती है तथा उसके पिता को ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है।
इसलिये हे पुत्री! मैं तुमको भेज रहा हूँ कि तुम स्वयं अपने योग्य वर ढूँढलो। वृद्ध मंत्रियों के साथ शीघ्र जाओ और मेरी बात को मानो। इसके बाद 'जैसा कहते हैं वैसा ही होगा' ऐसा कह कर सावित्री घर से निकल कर राजघियों के रम्य तपोवनों की ओर चल पड़ी और वहाँ पहुँच कर माननीय वृद्धजनों को प्रणाम कर सभी तीर्थों और आश्रमों में जाकर पुन: मंत्रियों के साथ सावित्री अपने गृह पर आ गई और वहाँ पर पिताजी के समक्ष देवर्षि नारद को बैठेहुए देखा।
आसन पर बैठेहुए नारदजी को प्रणाम कर मुस्कुराती हुई जिस कार्य के लिए वन में गई थ्री, सारी कथाएं उनसे कहने लगी, सावित्री बोली– हे देवर्षि नारदजी! शाल्वदेश में धर्मात्मा द्युमत्सेन नाम से विख्यात एक क्षत्रिय राजा हैं, जो दैववश अन्धे हो गये हैं। उस समय उनको छोटा-सा एक बालक और उसकी माँ थी। ऐसे समय में अवसर पाकर उनका पूर्व बैरी रुक्मि नामक एक सामंत राजा ने उनसे राज-पाट छीन लिया।
अत: वह आर्य द्युमत्सेन छोटे बच्चे को साथ लिये हुए अपनी स्त्री के साथ जंगल की ओर चल दिये। उनका वह पुत्र वन में ही बड़ा होकर धार्मिक, सत्य बोलने वाला है। अत: अपने अनुरूपपति समझ कर मैंने उसे मन से वरण कर लिया है।
यह सुनकर नारदजी ने कहा– हे राजन्! सावित्री ने यह बड़ा कष्टप्रद कार्य कर डाला। बाल-बुद्धि होने से इसने केवल गुणवान् समझ कर सत्यवान् को वरण कर लिया। उसका पिता सत्य बोलता है, माता सत्य बोलती है और वहस्वयं भी सत्य बोलता है। इससे उसका नाम मुनियों ने' सत्यवान' रखा है। उसको नित्य अश्व (घोड़े) प्रिय हैं और वह मिट्टी के घोड़े बनाया करता है तथा चित्र में भी घोड़ों को लिखता रहता है इससे उसे 'चित्राश्व' भी कहते हैं |
सत्यवान् दान और गुण में रन्तिदेव के शिष्य के समान है, ब्राह्मणों की रक्षा करने वाला और सत्यवादी तथा औशिनिर शिवि के समान है। ययाति के समान उदार, चन्द्रमा के समान देखने में प्रिय लगने वाला, रूप में दूसरे अश्विनी कुमार के समान और द्यूमत्सेन के समान बलवान् है, किन्तु उसमें केवल यही एक दोष है- दूसरा कोई नहीं कि सत्यवान् आज से ठीक एक वर्ष पर क्षीणायुहो जाने से देहत्याग कर देगा।
इस प्रकार नारदजी की बात सुनकर राजकन्रू सावित्री ने राजा से कहा– राजा लोग किसी से एक बार कोई बात कहते हैं। ब्रह्मवेत्ता (ब्राह्मण) एक ही बार कहते हैं और एक ही बार कन्या दी जाती है, ये तीनों कर्म एक ही बार किये जाते हैं । दीर्घायु हो अथवा अल्पायु, गुणवान् हा अथवा निर्गुण, वर को एक बार वरण कर लिया। अब दसरे वर को वरण नहीं करूँगी, पहले मन से निश्चय करके बाद में उसे वाणी द्वारा प्रकट किया जाता है। पुनः उसके बाद कर्म द्वारा किया जाता है। इससे प्रत्येक कार्य में कर्म में मन को प्रमाण माना जाता है अर्थात् मन के विरुद्ध कार्य नहीं किया जाता है।
नारदजी ने कहा– हे राजन! यदि आपको इष्ट हो तो अपनी पुत्री सावित्री का कन्यादान निर्विघ्नता के साथ शीघ्र कर डालिये।
ऐसा कहकर नारदजी आकाशमार्ग से स्वर्गलोक चले गये। उसके बाद राजा ने भी शुभ मुहूर्त के समीपवर्ती वेदों के पारगामी ब्राह्मणों के द्वारा पुत्री सावित्री का विवाह सम्बंधी सभी कार्य सम्पन्न किया और तन्वंगी सावित्री भी मनोभिलषित उस (सत्यवान्) पति को पाकर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई पुण्यवान् पुरुष स्वर्ग को देखकर प्रसन्न होता है।
पनः शिवजी पार्वती से कहते हैं– हे पार्वती! इस प्रकार उस आश्रम में उस समय हुए उन (सावित्री और सत्यवान्) के कुछ समय व्यतीत हुए। उस समय केवल एक भार्या सावित्री ही ऐसी थी कि जिसके चित्त में रात-दिन जो नारद की कही हुई बात थी, उसकी याद बनी रहती थी। उसके बाद बहुत दिन बीत जाने पर वह समय आ गया कि जिसमें सत्यवान् को मरना था। तिथि को सायंकाल में आज से चौथे दिन मेरे पति का मरन चाहिए- यह सोचकर तीन रात्रि तक निराहार व्रत रहने का उद्देश्य रखकर रात- दिन आश्रम में स्थिररूप से रहने लगी।
इसके बाद तीन रात्रि बीत जाने पर प्रात: काल स्नान कर देवताओं का तर्पण करने के बाद चारुहासिनी सावित्री ने सास- श्वसुर का पद- वन्दन किया। इसके बाद जब कुल्हाड़ी लेकर सत्यवान् जंगल की ओर चला तब जाते हुए अपने पति के पीछे-पीछे सावित्री भी चली। वन में पहुँचकर सत्यवान् जल्दी से फल, पुष्प, समिधा और कुशा तथा सूखी लकड़ियों को इकद्ठा कर ले जाने योग्य भार बनाने लगा, काटते- काटते उसके सिर में पीड़ा होने लगी, जिससे उस कार्य को छोड़कर वट वृक्ष की एक शाखा का सहारा लेकर सावित्री से कहने लगा- हे सुन्दरी! सिर की वेदना मुझे दुःख दे रही है। अत: मैं तुम्हारी गोद में क्षणभर सोना चाहता हूँ।
सावित्री ने दुःखित होकर कहा– हे महाबाहो! आप विश्राम करें, पीछे हम श्रम को दूर करने वाले आश्रम को चलेंगे।
जैसे ही पृथ्वी पर बैठी हुई सावित्री ने सत्यवान् के सिर को अपनी गोद में रखा वैसे ही उसने कृष्णमिश्रित, पिंगलवर्ण वाले, किरीटधारी, पीत वस्त्र पहने हुए, साक्षात सूर्य के समान उदित हुए पुरुष को देखा। उसे देखकर सावित्री प्रणाम कर मधुर वचनों से उससे कहने लगी- आप देवताओं अथवा दैत्यों में से कौन हैं, जो मुझे धर्मच्युत करने के लिए आये हैं। मुझे अपने धर्म से च्युत करने के लिए कोई समर्थ नहीं है क्योंकि हे पुरुष श्रेष्ठ! मुझे धधकती आग की लपट के समान ही समझिये।
यमराज ने कहा– मैं सब प्राणियों के लिये भयंकर और क्मानुसार उनका उचित दण्ड देने वाला यम हूँ। सो हे पतिव्रता सावित्री! समीप में पड़े हुए इस पति की आयु समाप्त हो गई है। इसे यमदूत पकड़ कर नहीं ल जा सकेंगे, इसलिये मैं स्वयं आया हूँ।
ऐसा कहकर फाँस को लिये हुए यमराज सत्यव्रत (सत्यवान्) के शरीर से अंगुष्ठमात्र शरीर वाले पुरुष (जीवात्मा) को बलपूर्वक निकाल लिया इसके बाद पितृगण से सेवित यमपुरी के मार्ग की ओर चलना शुरू किया, तो वरारोहा सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चली।
यम ने पतिव्रता होने के नाते चलने में न थकती हुई उससे कहा- हे सावित्री! एक मुहूर्त हुआ तुम यहाँ तक मेरे साथ आ गई, अब लौट जाओ। हे विशाल नेत्रों वाली! कोई जीव बिना आयु समाप्त हुए इस यमपुरी के मार्ग पर नहीं आ सकता।
सावित्री ने कहा– आपके जैसे विशिष्ट पुरुष के साथ पति का अनुगमन करती हुई मुझे कभी भी शर्म या ग्लानि नहीं हो सकती। सज्जनों की गति (सहारा) एकमात्र सज्जन ही हैं, दूसरा नहीं। इसी प्रकार स्त्रियों की गति उनका पति, वर्णाश्रमों की गति बेद और शिष्यों की गति गुरु हैं। इस पृथ्वीतल में सब प्राणियों के स्थान हैं, किन्तु स्त्रियों के लिए तो एक मात्र पति को छोड़कर दूसरा कोई आश्रय (स्थान) नहीं है।
इस प्रकार से धर्म से भरे हुए सुन्दर मधुर वाक्यों से भी सूर्यपुत्र (यमराज) ने प्रसन्न होकर सावित्री से यह बात कही।
यमराज ने कहा– हे भामिनी! मैं तुमसे प्रसन्न हैं, तुम्हारा कल्याण हो, तुम मुझसे वर माँगो। उस (सावित्री) ने भी विनय से सिर झुका कर अपने लिए राज्य पाने का वर माँगा और अपने महात्मा श्वसुर के लिये देखने की शक्ति पाने के साथ-साथ पुन: राज्य- प्राप्ति एवं अपने पिता के लिए सौ पुत्रों की तथा अपने लिए भी सौ पुत्रों की प्राप्ति के लिए वर माँगा तथा पति के लिए पुनर्जीवनदान एवं निरन्तर धर्म की सिद्धि प्राप्त करने का वरदान माँगा।
इस प्रकार वर माँगने पर धर्मराज (यमराज) ने भी उसे अभीष्ट वर प्रदान कर वापस किया। उसके बाद सावित्री पति का जीवनदान प्राप्त कर प्रसन्नचित होती हुई अपने पति के साथ शान्ति से अपने आश्रम को चली गई। उसी सावित्री ने ज्येष्ठकी पूर्णिमा के दिन इस सावित्री व्रत को किया था, जिसके भाव से राजा (श्वसुर) को पुनः नेत्र की प्राप्ति हुई। उसके बाद उन्हें निष्कंटक अपने देश तथा राज्य की प्राप्ति हुई और सावित्री के पिता को सौ पुत्र तथा सावित्री को भी सौ पुत्र प्राप्त हुए।
इस प्रकार सावित्री व्रत के सम्पूर्ण माहात्म्यको मैंने तुमसे कहदिया।
पार्वती जी ने कहा– हे देव! सावित्री के द्वारा किया हुआ वह महान् व्रत किस प्रकार का है और ज्येष्ठमास में उसका विधान कैसे किया जाता है। वे विभो! उस व्रत के देवता कौन हैं? कौन-कौन मंत्र हैं? क्या फल है? सो है महेश! इस सनातन धर्म को विस्तारपूर्वक आप मुझसे कहें।
ईश्वर (शंकर) जी ने कहा– हे देवदेवेशि! सावित्री व्रत को आदरपूर्वक सुनो। हे महेश्वरि! उस सती (सावित्री) ने जिस प्रकार से इस को किया, उसे मैं कहरहा हूँ।
हेभामिनी! ज्येष्ठशुक्लकी त्रयोदशी तिथिके दिन प्रातः दन्त-धावनकर चुकने के बादतीन रात्रि तक उपवास करने का नियम करें। यदि व्रती अशक्त (उपवास करने में असमर्थ) हो तो जितेन्द्रिय होकर त्रयोदरशी की रात्रि में उपवास कर और चतुर्दशी के दिन बिना माँगे प्राप्त हुई अन्न को ग्रहण करें तथा पूर्णिमा के दिन उपवास करें।
हसुश्राणि! प्रतिदिन तालाब, महानदी या झरना अथवा पाण्डु-कूप में स्नान करने से सर्वस्नान का फल प्राप्त करें।
हे यशस्विनि! विशेष करके पूर्णिमा में सरसों और मुक्तिका मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। प्रस्थ (३६ रुपय) अटने लायक पात्र में बालू भर कर अथवा यव, शालिधान्य, तिल आदि भरे, फिर दो वस्त्र के टुकड़ी से वेष्टित बाँस की डालियाँ में सब अवयवों से सशोभित सवर्ण या मिट्टी अथवा काप्ठ की बनी हुई साबित्री की प्रतिमा को रखकर, उसमें सावित्री के लिए दो रक्तवस्त्र देवे और ब्रह्म की प्रतिमा के लिये श्वेतवस्त्र देवे।
इस प्रकार से ब्रह्मा के साथ सावित्री का यथाशक्ति गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन करे। पूर्ण तैयार हुई तरोई, कोहड़ी, नारियल, खजूर, कैंथ, अनार, जामुन, जंबीरी नींबू, नारंगी अखरोट, कटहल, जीरा, काली मिर्च के टुकड़े, गुड़, सेंधा नमक एवं अंकुरित सप्तधान्य को बाँस की बनी हुई डलिया में रखकर रेशमी वस्त्र से वेष्टित कर कुंकुम-केशर के रंग से रंग देवे।
इस प्रकार से ब्रह्माजी की प्रिया सावित्री की स्थापना होती है। ब्रह्मा के साथ उस सावित्री प्रतिमा का मंत्र के साथ पूजन करे । इतर पुराणों में यहमन्त्र कहा हुआ है, जिसके पूर्व में ॐकार यहवर्ण है-ऐसी वीणा और पुस्तक धारण करने वाली वेदों की जननी हेदेवी! तुम्हें नमस्कार है, मुझे विधवा न होने का वरदान दो।
इस प्रकार से विधिवत पूजन करके वहाँ (पूजा-स्थल) पर रात्रि जागरण की विधि करावे| गाने-बजाने के साध नर-नारीवृन्द मिल कर नृत्य-शास्त्र में विशारद के साथ नाचें और हंसी-खुशी के साथ रात्रि व्यतीत करें और सावित्री की कथा अच्छे ब्राह्मणों द्वारा गीत, भाव तथा रस के साथ प्रभात होने तक कहलावें । इस प्रकार से सावित्रो का ब्रह्मा के साथ विवाह-विधि सम्पन्न कर सात द्विज-दम्पतियों को श्वेत-वस्त्र पहना कर सभी सामग्रियों से युक्त गृह-दान देना चाहिये और वेद के ज्ञाता ब्राह्मण को सावित्री की प्रतिमा देवे।
इसके बाद सावित्री कल्प (सावित्री-विषयक पूजा-पद्धति) जानने वाले, सावित्री कथा के वाचक, ज्योतिषी, उज्छवृत्तिवाले (खलिहान में बिखरे अन्न को बीन कर जीविका चलाने वाले) दरिद्र, अग्निहोत्र कर्म करने वाले ब्राह्मण को इस प्रकार विधिपूर्वक सावित्री प्रतिमा का दान दे। उसी पूर्णिमा की रात्रि में वट के नीचे १४ (चौदह) द्विज-दम्पतियों को निरमंत्रित करे उसके बाद प्रभात समय में उषाकाल उपस्थित होने पर भक्ष्य भोजन आदि सामग्री की सावित्रीस्थल (वटवृक्ष के नीचे) ले आवें। बुद्धिमान जन पवित्रता के साथ पाक बनाकर और उसको यत्नपूर्वक रक्षा करके गृहिणीयुक्त निर्मंत्रित ब्राह्मणों को बुला कर उस सावित्री के पूजन-स्थल में उनका पैर धोकर उन सबों को वैठावें।
हे देवी! सावित्री के समक्ष उन द्विज दम्पतियों को भोजन करावे। इस संसार में उन सबों को भोजन कराना मानो मुझे भोजन कराना हो जाता है, इसमें कोई सन्देहनहीं है, जो दूसरी बार सावित्री के समक्ष द्विज-दम्पत्तियों को भोजन कराता है, वहमानों केशव भगवान् को भोजन कराता है, जिससे प्रसन्न होकर वर देने वाले भगवान् विष्णु उसे अभीष्ट वर देते हैं। तीसरी बार भोजन कराने पर सावित्री के सहित ब्रह्माजी का भोजन कराना हो जाता है। वहाँ (सावित्री के समक्ष) एक-एक बार भोजन कराना कोटि-कोटि बार भोजन कराने के समान समझा जाता है।
हे महादेवी! सावित्री के पुजन-स्थल वट के नीचे १८ परकार के षटरस भोजन बनाकर देवी (सावित्री) के समस द्विज-दम्पतियों को खिलाने से जनके कल में कोई स्त्री न विधवा, न बन्ध्या, न अभागिना, न कन्या मात्र को पदा करने वाली तथा न अपने पति को अप्रिय लगने वाली ही होती है और असत्य आदि नारियों के प्रासिब्ध दाष कभी उसके कुल की स्त्रियों में नहीं होता है। इसलिए हे देवी! विशेष यत्न के साथ सावित्री देवा के आग कडुवा-तोता से रहित ही भोजन देना चाहिए। उस समय स्त्रियों को अम्ल (खट्टा) और क्षार पदार्थ युक्त भाजन कमी न कराना चाहिए बल्कि पाँच प्रकार के मधर, हृदय को प्रिय लगने वाला तथा सुन्दर रीति से पकाय अन्न का ही भोजन कराना चाहिए, घुत से पूर्ण और अधिक दध में पड़े हुए पूये बनावे और दूसरे पूर्य एसे बनाये जो वर्ति (सेवई) के रूप में शोक हरने से 'अशोक वर्तिका' नाम से प्रसिद्ध है। तीसरे पूये खजूर के बने हुए होने चाहिए। चौथे गुड़ और घृत से युक्त संयाव के रूप में होने चाहिए, जो स्त्री इन सबों को दान करती व स्वयं खाती है, वह पुरुषों के लिए आह्वादकारिणी एवंस्त्रियों के लिये अत्यंत प्यारी, धन- धान्य तथा बहुत बड़े कुटुम्ब वाली होती है। पूओं के दान से उसके कुल में ज्वर, सन्ताप और किसी प्रिय के वियोग का दुःख नहीं होता है।
अशोक वर्तिका के दान से 21 पीढ़ी तक उसका कुल बहुओं, लड़कों, अनगिनत दास-दासियों से भरा रहता है और जो स्त्रियां पूड़ियों को देती हैं उनके कुल में बहुओं के साथ-साथ लड़कियाँ भी पुत्रिणी होती है।
शिखरिणी (सिखरन) का दान करने वाली युवतियों को उक्त सभी फल प्राप्त होते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। मोदकों (लड्डुओं) के दान से उसका सम्पूर्ण कुल सर्व प्रकार की सिद्धियों से भरा-पूरा रहता है- ऐसा पितामह (ब्रह्माजी) का वचन है।
है देवी! आठ वर्ष की गौरी (कन्याओं) को भोजन कराने से यह विशिष्ट फल होता है कि वह जन्म-जन्म में सौभाग्यवती, पुत्रिणी, पतिव्रता, धन की वृद्धि से सुशोभित, सहस्त्रों को भोजन कराने वाली होती है। मुख्य पान (पीने योग्य पदार्थ) जो हृदय को प्रिय लगने वाले और मधुर हों, जैसे-द्राक्षापान (अंगूर का शर्बत), गुड़ से युक्त इमली का पान, खाँड से बने हुए मीठे शर्बत, इसके अतिरिक्त अन्य जो भी योग्य वर्ण सुगन्धित पान हों, उन्हें द्विज-दम्पतियों को देना (पिलाना) चाहिए, विधिपूर्वक पूजन करके उन द्विज-दम्पत्तियों को वस्त्रादि (धोती, साड़ी, कंचुकी आदि) पहनाकर, कुंकुम आदि सुगन्धित वस्तु का लेप शरीर में लगाकर फूल-माला से अलंकृत कर गन्ध-धूप से पूजन करके अंत में नारियल देना चाहिए और उन द्विज-दम्पतियों के आँखों में अंजन और मस्तक में सिन्दूर लगा कर मनोहर सुवासित और कोमल सुपाड़ियों को पात्र में रखकर उनके हाथ में देने के बाद प्रणाम कर उनका विसर्जन कर दें। अन्त में, इस कृत्य से निवृत्त होकर बन्धु एवं बालकों के साथ स्वयं भोजन करें। यदि पूजन-स्थल में भोजन नकर सकें तो घर जाकर भोजन करना चाहिए, जिससे देवी प्रसन्न हो।
इसी प्रकार से अपने घर आकर पिण्डदानपूर्वक पितरों का सविधि-श्राद्ध करना चाहिए। ऐसा करने से उनके पितृगण ब्रह्मा के एक दिन (4 अरब 32 करोड़ वर्ष) तक संतुष्ट बने रहते हैं। तीर्थ में आठगुना पुण्य अपने घर में दान देने से होता है क्योंकि द्विजातियों द्वारा किये हुए श्राद्धों को नीच जन नहीं देख पाते। अतः एकान्त गृहमें गुप्त रूप से पितरों का श्राद्ध करना उचित होता है, नीच के देखने मात्र से ही वह श्राद्ध हत (निष्फल) हो जाने से पितरों को नहीं प्राप्त हो पाता है। इसलिये जहाँ तक हो सके प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध को गुप्तरूप से करना चाहिए क्योंकि पितरों की तृप्ति देने वाले ऐसे ही श्राद्ध को ब्रह्माजी ने स्वयं बताया है। पूर्वोक्त गौरी (कन्या) का भोजन कराना आदि जो क्रियाएं हैं-वे उत्सर्ग कहलाती हैं और मनुष्यों को कीर्ति प्रदान करने वाली होने से राजसी कहीं जाता है, अपना हितचाहने वाले व्यक्तियों को कहेहए ये दान सदा देने चाहिए। यदि सात्विक फल की चाहत है, तो श्राद्ध में विशेष रूप में इस प्रकार के दान देने चाहिए जैसा की ऊपर कह आये है।
है देवी! सावित्री व्रत का उद्यापन सभी प्रकार के पापों से छुटकारा पाने के लिये मनुष्यों को अवश्य करना चाहिए। इसके करने से इच्छा या अनिच्छा से किये हुए सभी पाप तुरंत खत्म हो जाते है, जो लोग इस प्रकार से वट सावित्री की यात्रा करते हैं, उनको इस लोक में सौभाग्य, धन, धान्य, सुन्दर स्त्रयाँ विविध रूप से प्राप्त होती है। इस यात्रा-विधान को जो कोई मनुष्य भक्ति पूर्वक करता है या इस वट सावित्री व्रत-कथा को सुनता है वह पापों से छुटकारा पा जाता है।
हे देवी! जो पुरुष ज्येष्ठकी पूर्णिमा के दिन विधि पूर्वक सावित्री के पूजन स्थल (वट- वृक्ष) की 108 या 54 अथवा 17 प्रदक्षिण यत्नपूर्वक करते हैं तो उनके द्वारा अज्ञानपूर्वक किये हुए-अगम्या स्त्री के साथ गगनरूपी पाप अथवा अन्य भी किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं।
इसमें कोई सन्देह नहीं है, जो उक्त सावित्री के स्थल (वट- वक्ष) के नीचे जाकर संध्या-वन्दन किया करते हैं और अपनी पत्नी के हाथ से लाये हुए पाण्डु- कूप के जल से सवर्ण की झारी अथवा मिट्टी की झारी से है भामिनी! जल ले आकर संध्योपासन करते हैं।
उनके द्वारा 12 वर्ष तक की संध्योपासना की हुई मानी जाती है। पाण्डु- कृप में स्नान करने में अश्वमेध यज्ञ का फल होता है। दान देने से 10 गुना फल और उपवास करने तथा सुनने से अनन्त फल होता है।
(𝙵𝚘𝚛 𝚝𝚑𝚘𝚜𝚎 𝚠𝚑𝚘 𝚍𝚒𝚍 𝚗𝚘𝚝 𝚛𝚎𝚊𝚍 𝚝𝚑𝚎 𝚜𝚝𝚘𝚛𝚢 𝚒𝚗 𝙷𝚒𝚗𝚍𝚒 -
𝙺𝚒𝚗𝚐 𝙰𝚜𝚑𝚟𝚊𝚙𝚊𝚝𝚒 𝚊𝚗𝚍 𝚑𝚒𝚜 𝚚𝚞𝚎𝚎𝚗 𝚠𝚎𝚛𝚎 𝚌𝚑𝚒𝚕𝚍𝚕𝚎𝚜𝚜, 𝚏𝚘𝚛 𝚊 𝚕𝚘𝚗𝚐 𝚝𝚒𝚖𝚎. 𝙰𝚏𝚝𝚎𝚛 𝚊 𝚍𝚎𝚍𝚒𝚌𝚊𝚝𝚎𝚍 𝚙𝚎𝚗𝚊𝚗𝚌𝚎, 𝚝𝚘 𝙻𝚘𝚛𝚍 𝚜𝚞𝚗, 𝚝𝚑𝚎𝚢 𝚠𝚎𝚛𝚎 𝚋𝚕𝚎𝚜𝚜𝚎𝚍 𝚠𝚒𝚝𝚑 𝚊 𝚐𝚒𝚛𝚕 𝚌𝚑𝚒𝚕𝚍 𝚠𝚑𝚘 𝚠𝚊𝚜 𝚗𝚊𝚖𝚎𝚍 𝚂𝚊𝚟𝚒𝚝𝚛𝚒. 𝚃𝚑𝚎 𝚐𝚒𝚛𝚕 𝚜𝚞𝚛𝚙𝚛𝚒𝚜𝚒𝚗𝚐𝚕𝚢 𝚠𝚊𝚜 𝚊𝚜𝚌𝚎𝚝𝚒𝚌𝚊𝚕𝚕𝚢 𝚒𝚗𝚌𝚕𝚒𝚗𝚎𝚍 𝚎𝚟𝚎𝚗 𝚍𝚞𝚛𝚒𝚗𝚐 𝚑𝚎𝚛 𝚐𝚛𝚘𝚠𝚒𝚗𝚐 𝚢𝚎𝚊𝚛𝚜.
𝚄𝚗𝚊𝚋𝚕𝚎 𝚝𝚘 𝚏𝚒𝚗𝚍 𝚊 𝚖𝚊𝚝𝚌𝚑 𝚏𝚘𝚛 𝚑𝚎𝚛, 𝚝𝚑𝚎 𝚙𝚊𝚛𝚎𝚗𝚝𝚜 𝚊𝚕𝚕𝚘𝚠𝚎𝚍 𝚑𝚎𝚛 𝚝𝚘 𝚕𝚘𝚘𝚔 𝚘𝚞𝚝 𝚏𝚘𝚛 𝚊 𝚑𝚞𝚜𝚋𝚊𝚗𝚍. 𝙳𝚞𝚛𝚒𝚗𝚐 𝚝𝚑𝚎 𝚐𝚛𝚘𝚘𝚖 𝚜𝚎𝚊𝚛𝚌𝚑, 𝚜𝚑𝚎 𝚏𝚘𝚞𝚗𝚍 𝚝𝚑𝚎 𝚎𝚡𝚒𝚕𝚎𝚍 𝚋𝚕𝚒𝚗𝚍 𝚔𝚒𝚗𝚐 𝙳𝚢𝚞𝚖𝚊𝚝𝚜𝚎𝚗𝚊 𝚊𝚗𝚍 𝚑𝚒𝚜 𝚌𝚑𝚊𝚛𝚖𝚒𝚗𝚐 𝚜𝚘𝚗 𝚂𝚊𝚝𝚢𝚊𝚟𝚊𝚗 𝚒𝚗 𝚝𝚑𝚎 𝚍𝚎𝚗𝚜𝚎 𝚏𝚘𝚛𝚎𝚜𝚝.
𝚂𝚑𝚎 𝚎𝚡𝚙𝚛𝚎𝚜𝚜𝚎𝚍 𝚊 𝚍𝚎𝚜𝚒𝚛𝚎 𝚝𝚘 𝚖𝚊𝚛𝚛𝚢 𝚂𝚊𝚝𝚢𝚊𝚟𝚊𝚗. 𝙷𝚘𝚠𝚎𝚟𝚎𝚛, 𝙼𝚊𝚑𝚊𝚛𝚜𝚑𝚒 𝙽𝚊𝚛𝚊𝚍 𝚒𝚗𝚝𝚎𝚛𝚟𝚎𝚗𝚎𝚍 𝚊𝚗𝚍 𝚙𝚛𝚎𝚍𝚒𝚌𝚝𝚎𝚍 𝚊 𝚏𝚊𝚝𝚊𝚕 𝚍𝚊𝚗𝚐𝚎𝚛 𝚝𝚘 𝚂𝚊𝚝𝚢𝚊𝚟𝚊𝚗'𝚜 𝚕𝚒𝚏𝚎 𝚊𝚏𝚝𝚎𝚛 𝚖𝚊𝚛𝚛𝚒𝚊𝚐𝚎. 𝙷𝚎 𝚏𝚘𝚛𝚎𝚝𝚘𝚕𝚍 𝚝𝚑𝚊𝚝 𝚝𝚑𝚎 𝚙𝚛𝚒𝚗𝚌𝚎 𝚠𝚒𝚕𝚕 𝚍𝚒𝚎 𝚠𝚒𝚝𝚑𝚒𝚗 𝚊 𝚢𝚎𝚊𝚛 𝚘𝚏 𝚖𝚊𝚛𝚛𝚢𝚒𝚗𝚐 𝚂𝚊𝚟𝚒𝚝𝚛𝚒.
𝚂𝚊𝚟𝚒𝚝𝚛𝚒 𝚠𝚊𝚜 𝚋𝚕𝚒𝚗𝚍𝚎𝚍 𝚒𝚗 𝚕𝚘𝚟𝚎 𝚊𝚗𝚍 𝚌𝚘𝚗𝚌𝚎𝚛𝚗 𝚊𝚗𝚍 𝚑𝚎𝚛 𝚑𝚞𝚖𝚊𝚗𝚎 𝚒𝚗𝚜𝚝𝚒𝚗𝚌𝚝𝚜 𝚐𝚘𝚝 𝚝𝚑𝚎 𝚋𝚎𝚝𝚝𝚎𝚛 𝚘𝚏 𝚑𝚎𝚛 𝚊𝚝 𝚝𝚑𝚊𝚝 𝚖𝚘𝚖𝚎𝚗𝚝.
𝚆𝚒𝚕𝚕𝚏𝚞𝚕𝚕𝚢, 𝚜𝚑𝚎 𝚖𝚘𝚟𝚎𝚍 𝚊𝚕𝚘𝚗𝚐 𝚠𝚒𝚝𝚑 𝚑𝚎𝚛 𝚑𝚞𝚜𝚋𝚊𝚗𝚍 𝚝𝚘 𝚝𝚑𝚎 𝚏𝚘𝚛𝚎𝚜𝚝𝚜 𝚊𝚗𝚍 𝚜𝚝𝚊𝚛𝚝𝚎𝚍 𝚕𝚒𝚟𝚒𝚗𝚐 𝚝𝚑𝚎 𝚕𝚒𝚏𝚎 𝚘𝚏 𝚊 𝚖𝚎𝚗𝚍𝚒𝚌𝚊𝚗𝚝, 𝚛𝚎𝚕𝚒𝚗𝚚𝚞𝚒𝚜𝚑𝚒𝚗𝚐 𝚊𝚕𝚕 𝚛𝚘𝚢𝚊𝚕 𝚌𝚘𝚖𝚏𝚘𝚛𝚝𝚜. 𝚃𝚒𝚖𝚎 𝚏𝚕𝚎𝚠 𝚠𝚒𝚝𝚑𝚘𝚞𝚝 𝚗𝚘𝚝𝚒𝚌𝚎 𝚊𝚗𝚍 𝚝𝚑𝚎 𝚌𝚘𝚞𝚙𝚕𝚎 𝚑𝚊𝚍 𝚜𝚙𝚎𝚗𝚝 𝚊𝚕𝚖𝚘𝚜𝚝 𝚊 𝚢𝚎𝚊𝚛 𝚘𝚏 𝚠𝚎𝚍𝚍𝚎𝚍 𝚋𝚕𝚒𝚜𝚜.
𝚃𝚑𝚊𝚝 𝚏𝚊𝚝𝚎𝚏𝚞𝚕 𝚍𝚊𝚢 𝚊𝚛𝚛𝚒𝚟𝚎𝚍. 𝚂𝚊𝚟𝚒𝚝𝚛𝚒 𝚋𝚎𝚐𝚊𝚗 𝚝𝚑𝚎 𝚏𝚊𝚜𝚝, 𝚒𝚗 𝚝𝚑𝚎 𝚖𝚘𝚛𝚗𝚒𝚗𝚐 𝚊𝚗𝚍 𝚕𝚊𝚝𝚎𝚛 𝚏𝚘𝚕𝚕𝚘𝚠𝚎𝚍 𝚑𝚎𝚛 𝚑𝚞𝚜𝚋𝚊𝚗𝚍 𝚝𝚘 𝚝𝚑𝚎 𝚏𝚘𝚛𝚎𝚜𝚝.
𝙳𝚎𝚊𝚝𝚑 𝚊𝚙𝚙𝚛𝚘𝚊𝚌𝚑𝚎𝚍 𝚂𝚊𝚝𝚢𝚊𝚟𝚊𝚗 𝚊𝚗𝚍 𝚑𝚎 𝚌𝚘𝚕𝚕𝚊𝚙𝚜𝚎𝚍 𝚝𝚘 𝚍𝚎𝚊𝚝𝚑 𝚠𝚑𝚒𝚕𝚎 𝚌𝚑𝚘𝚙𝚙𝚒𝚗𝚐 𝚝𝚑𝚎 𝚠𝚘𝚘𝚍. 𝚈𝚊𝚖𝚊, 𝚝𝚑𝚎 𝚐𝚘𝚍 𝚘𝚏 𝚍𝚎𝚊𝚝𝚑, 𝚊𝚛𝚛𝚒𝚟𝚎𝚍 𝚊𝚝 𝚝𝚑𝚎 𝚜𝚌𝚎𝚗𝚊𝚛𝚒𝚘 𝚝𝚘 𝚝𝚊𝚔𝚎 𝚊𝚠𝚊𝚢 𝚂𝚊𝚝𝚢𝚊𝚟𝚊𝚗. 𝚂𝚊𝚟𝚒𝚝𝚛𝚒 𝚍𝚎𝚌𝚒𝚍𝚎𝚍 𝚝𝚘 𝚏𝚘𝚕𝚕𝚘𝚠 𝚈𝚊𝚖𝚊 𝚝𝚒𝚕𝚕 𝚑𝚎 𝚛𝚎𝚝𝚞𝚛𝚗𝚎𝚍 𝚑𝚎𝚛 𝚑𝚞𝚜𝚋𝚊𝚗𝚍'𝚜 𝚜𝚘𝚞𝚕 𝚋𝚊𝚌𝚔 𝚝𝚘 𝚑𝚎𝚛.
𝙰𝚏𝚝𝚎𝚛 𝚝𝚑𝚛𝚎𝚎 𝚍𝚊𝚢𝚜 𝚊𝚗𝚍 𝚗𝚒𝚐𝚑𝚝𝚜, 𝙻𝚘𝚛𝚍 𝚈𝚊𝚖𝚊 𝚐𝚊𝚟𝚎 𝚒𝚗 𝚊𝚗𝚍 𝚊𝚜𝚔𝚎𝚍 𝚂𝚊𝚟𝚒𝚝𝚛𝚒 𝚏𝚘𝚛 𝚊𝚗𝚢 𝚝𝚑𝚛𝚎𝚎 𝚠𝚒𝚜𝚑𝚎𝚜 𝚝𝚑𝚊𝚝 𝚑𝚎 𝚠𝚒𝚕𝚕 𝚐𝚛𝚊𝚗𝚝 𝚏𝚘𝚛 𝚑𝚎𝚛. 𝚂𝚊𝚟𝚒𝚝𝚛𝚒, 𝚌𝚕𝚎𝚟𝚎𝚛 𝚊𝚜 𝚜𝚑𝚎 𝚠𝚊𝚜, 𝚊𝚜𝚔𝚎𝚍 𝚈𝚊𝚖𝚊 𝚝𝚘 𝚛𝚎𝚜𝚝𝚘𝚛𝚎 𝚑𝚎𝚛 𝚑𝚞𝚜𝚋𝚊𝚗𝚍'𝚜 𝚕𝚘𝚜𝚝 𝚎𝚖𝚙𝚒𝚛𝚎, 𝚊𝚗𝚍 𝚝𝚑𝚎 𝚟𝚒𝚜𝚒𝚘𝚗 𝚝𝚘 𝚑𝚎𝚛 𝚋𝚕𝚒𝚗𝚍𝚎𝚍 𝚏𝚊𝚝𝚑𝚎𝚛-𝚒𝚗-𝚕𝚊𝚠. 𝚂𝚑𝚎 𝚍𝚒𝚍 𝚗𝚘𝚝 𝚐𝚒𝚟𝚎 𝚞𝚙 𝚘𝚗 𝚑𝚎𝚛 𝚜𝚘𝚓𝚘𝚞𝚛𝚗 𝚊𝚝 𝚝𝚑𝚒𝚜 𝚙𝚘𝚒𝚗𝚝. 𝚈𝚊𝚖𝚊 𝚐𝚛𝚎𝚊𝚝𝚕𝚢 𝚙𝚎𝚛𝚙𝚕𝚎𝚡𝚎𝚍 𝚍𝚎𝚌𝚒𝚍𝚎𝚍 𝚝𝚘 𝚐𝚛𝚊𝚗𝚝 𝚑𝚎𝚛 𝚊𝚗𝚘𝚝𝚑𝚎𝚛 𝚋𝚘𝚘𝚗. 𝚃𝚑𝚒𝚜 𝚝𝚒𝚖𝚎, 𝚂𝚊𝚟𝚒𝚝𝚛𝚒 𝚊𝚜𝚔𝚎𝚍 𝚏𝚘𝚛 𝚙𝚛𝚘𝚐𝚎𝚗𝚢 𝚏𝚛𝚘𝚖 𝚂𝚊𝚝𝚢𝚊𝚟𝚊𝚗.
𝚈𝚊𝚖𝚊, 𝚠𝚑𝚘 𝚠𝚊𝚜 𝚊𝚝 𝚑𝚒𝚜 𝚠𝚒𝚝'𝚜 𝚎𝚗𝚍, 𝚐𝚛𝚊𝚗𝚝𝚎𝚍 𝚑𝚎𝚛 𝚒𝚖𝚖𝚎𝚍𝚒𝚊𝚝𝚎𝚕𝚢 𝚠𝚑𝚊𝚝 𝚜𝚑𝚎 𝚛𝚎𝚚𝚞𝚎𝚜𝚝𝚎𝚍 𝚘𝚏 𝚑𝚒𝚖. 𝙰𝚜 𝚊 𝚛𝚎𝚜𝚞𝚕𝚝 𝚘𝚏 𝚑𝚎𝚛 𝚃𝚊𝚙𝚊𝚜𝚢𝚊, 𝚂𝚊𝚝𝚢𝚊𝚟𝚊𝚗 𝚛𝚘𝚜𝚎 𝚏𝚛𝚘𝚖 𝚝𝚑𝚎 𝚍𝚎𝚊𝚍 𝚊𝚗𝚍 𝚛𝚎𝚝𝚛𝚒𝚎𝚟𝚎𝚍 𝚑𝚒𝚜 𝚕𝚘𝚜𝚝 𝚎𝚖𝚙𝚒𝚛𝚎 𝚒𝚗𝚌𝚕𝚞𝚍𝚒𝚗𝚐 𝚝𝚑𝚎 𝚕𝚘𝚜𝚝 𝚟𝚒𝚜𝚒𝚘𝚗 𝚘𝚏 𝚑𝚒𝚜 𝚋𝚕𝚒𝚗𝚍 𝚏𝚊𝚝𝚑𝚎𝚛. 𝚂𝚒𝚗𝚌𝚎 𝚝𝚑𝚒𝚜 𝚍𝚊𝚢, 𝚝𝚑𝚎𝚢 𝚍𝚊𝚢 𝚌𝚊𝚖𝚎 𝚝𝚘 𝚋𝚎 𝚔𝚗𝚘𝚠𝚗 𝚊𝚜 𝚅𝚊𝚝 𝚂𝚊𝚟𝚒𝚝𝚛𝚒 𝚊𝚗𝚍 𝚕𝚊𝚍𝚒𝚎𝚜 𝚏𝚊𝚜𝚝 𝚏𝚘𝚛 𝚑𝚞𝚜𝚋𝚊𝚗𝚍𝚜 𝚕𝚘𝚗𝚐 𝚕𝚒𝚏𝚎 𝚝𝚘𝚍𝚊𝚢.)
Ananya finishes the story and everyone looks at one another surprised at the story they just learnt. It was beautiful.
Once the Aarti was done, Ananya applied Tikka to all her brother- in- laws, mother and husband before applying Sindoor from the edge of her nose to the partition in the hair.
She once again kneels in front of the plant and prays, 'Hey lord, you know what I want, there is no question in that. It is not such a big request even. I hope you will take my request in consideration.'
When she rises Nakul questions, "Sab Ho gaya na, Bhabhi Ma?" (All is done, right Bhabhi Ma?)
"Ek chohti chij reh gayi Hai." (One small thing is left.) Ananya says.
"Kya?" (What?) Kunti questions.
"Mujhe Arya ke pair dhone Hai." (I have to wash my husbands feet.) She says.
Karn was about to protest but a sharp look from his mother made him shut and watch as Ananya made him sit and washed his leg before wiping it from the end of her saree and then fanning him.
"Aapke lambi ayu ke liye Maine vrat rakha Hai." (I have kept the fast for your long life.) Ananya whispers softly. "Aap Mujhe yeh karne bhi nahi denge?" (Will you not let me do this?)
"Main bhi rakh leta hun, Vrat." (Then I can also keep the fast.) He says, softly.
"Is Mein main kuch nahi keh sakti, woh aapki marzi Hai." (I cannot say anything in that, it is all your wish.) Ananya replies, shrugging her shoulder.
Once, Ananya was done, Karn took it from her and washed her feet. "Toh fir aaj mera bhi vrat." (Then I also have fast today.)
Ananya just laughs at his words, while Karn smiles widely.
Kunti shook her head at the couple in front of her.
They are setting up high standards my other daughter- in- laws are going to be so jealous. God help my sons; they are going to really need it.
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How was the update for the day?
This was long! Phew!
I am not going to say much.
You guys should.
Thanks for Reading this.
Do Vote and Comment.
Aage dekhiye-
Third POV.
Of both Jungle and Anga.
(5160 words.)
--Sxxxxx
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