धरोहर की छाँव में
पश्चिम बंगाल, भारत का एक ऐसा राज्य जहाँ की हर चीज़ में बस शहद -सी घुलती मिठास है । चाहे वो शोंदेश जैसी मिठाई हो या हो मिष्टी दोई , या हो यहाँ के लोगों की बोली । ऐसा लगता है मानो बस किसी ने मिश्री घोल दी हो इस पूरे राज्य में । और सिर्फ यही नहीं यहाँ का तो अंदाज़ भी बहुत अद्भुत है । बंगाल के ऐतिहासिक शहर कलकत्ता से लेके यहाँ के राष्ट्रीय उद्यान, हर एक का नज़ारा देखते ही बनता है । और सबसे ज़्यादा मशहूर तो यहाँ की काली पूजा है, दुर्गाष्टमी पर सजते ऐसे सुन्दर पंडाल , ऐसा लगता है मानो अष्टभुजा वाली देवी दुर्गा स्वयं इस धरती पर अपने पांव धरकर इस धरती को पावन कर रहीं हो ।
इसी पावन धरती के एक छोटे से ज़िले जलपाईगुड़ी के छोटे से गाँव में रहता है अंग्रेजों के ज़माने का एक खानदानी परिवार , 'मुखर्जीों का परिवार' आज भी पूरे गाँव में किसी सरपंच से पहले देबनाथ मुखर्जी की इस हवेली की ओर लोग देखा करते हैं । देबनाथ मुखर्जी अपने ज़माने के बड़े जमींदार थे, उनका सभी गाँव वाले काफी सम्मान किया करते थे | अंग्रेजों के ज़माने में उन्हें अंग्रेजी सर्कार ने 'सर' के ख़िताब से नवाज़ा था लेकिन जैसे ही स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हुई उन्होंने अपना योगदान देते हुए इस ख़िताब का त्याग कर दिया | एक स्वतंत्रता सेनानी की तरह देश को आज़ाद करवाने के लिए वे भी अंग्रेजों के खिलाफ इस संग्राम में साथ जुड़ गए |
देबनाथ मुखर्जी के बाद उनके बेटे जयनाथ मुखर्जी ने इस हवेली को संभाला और अब उनके परपोते सुवब्रतनाथ मुखर्जी इस हवेली और अपने परिवार की देखभाल करते हैं | सालों की ज़मींदारी और व्यापर है, सुवब्रत ने जिसे बखूबी संभाला है | अब तो उनका व्यापर और ज़मींदारी दोनों ही अच्छे खासे बढ़ चुके हैं | हवेली की चमक दमक पर उसने कभी आंच नहीं आने दी | अपनी दादी और माँ के साथ वो इस हवेली में ख़ुशी ख़ुशी रहता है, उनसे दूर जाने का ख्याल भी उसके मन में कभी नहीं आया | सुवब्रत की माँ शारदा देवी तो उसे विलायत भेजना चाहती थी पर अपनी माँ और दादी की देखभाल को देखते हुए सुवब्रत ने अपने कदम कभी जलपाईगुड़ी के आगे बढ़ाये ही नहीं | हाँ व्यापार के सिलसिले में कभी बाहर जाना हुआ भी तो वो बात अलग है|
बड़ी हवेली के पूजाघर में रोज़ की तरह माँ काली की पूजा हो रही थी | सुवब्रत के हाथ में पूजा की थाल थी और माँ और दादी बगल में खड़े हो माँ शक्ति की वंदना कर रहीं थी | थोड़ी देर बाद शारदा जी ने शंख उठाया और उसे बजाने लगीं | जैसे ही आरती हुई सुवब्रत पलटा अपनी माँ और दादी को आरती दिखाई और फिर सारी हवेली में वो आरती दिखाने लगा | तभी सुवब्रत की हवेली में काम करने वाला एक नौकर वहां उसके सामने आया | उसने दोनों हाथ आगे बढ़ाके आरती ली और फिर वो अपने हाथ में कुछ सामान लेकर वो सुवब्रत के सामने खड़ा हो गया |
"छोटे ठाकुर, वो सामान नहीं लिया उन्होंने, जैसा लेकर गया था वैसे के वैसा वापस कर दिया , और कहा की उन्हें यूं परेशान न करें " सहमते हुए धीरे से उसने कहा |
सुवब्रत ने देखा की एक थाल में सजी साड़ियाँ और तमाम मिठाइयाँ , खाने पीने का सामान, गहने इत्यादि सब वापस आ चुके थे , सब कुछ अनछुआ था, यहाँ तक की नोटों की गड्डियां भी वैसी की वैसी थी जैसी उसने भिजवाई थी | जैसे हवा का स्पर्श तक इस सामान तक न पहुंचा हो |
"ठीक है, मेरे कमरे में रखवा दो" हताश होते हुए उसने जवाब दिया |
सुवब्रत के कमरे में सारा सामान रखवा दिया गया था। कमरे में जाकर उसने उस सामान को फिर एक बार देखा और फिर अपने कमरे की मेज़ के एक खाने को जब टटोला तो हाथ में एक लिफाफा आ गया। उस लिफाफे को देखकर सुवब्रत की आँखें नम हो गई। तभी उसके कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई। उसने जल्दी जल्दी से उस लिफाफे को फिर अपने दराज़ में रख दिया और फिर कमरे का दरवाज़ा खोला।
सुवब्रत ने देखा उसकी माँ सामने खड़ी थीं, उनके हाथ में कुछ तसवीरें भी थी। माँ के चेहरे पर उत्साह और हर्ष दोनों साफ झलक रहे थे।
"अरे सुवब्रत, ये देख वो सुलोचना है ना, वो कितनी अच्छी लड़कियों के रिश्ते लेकर आई है तेरे लिए" उन्होंने कहा।
"माँ तुम फिर शुरू हो गई, मैंने कहा न मुझे शादी नहीं करनी, आमी आग्रही ना" सुवब्रत झट से बोला कि उसे कोई रुचि नहीं थी। इतना कहकर वो दरवाज़ा लटकाकर बाहर आ गया।
"अरे सुवब्रत, ऐसा थोड़ी होता है, सबकी शादी होती है, एक बार मेरी बात तो सुन, एकबार छबि देखुना"
"माँ नहीं देखनी मुझे कोई लड़की वडकी कहा न"
सुवब्रत और शारदा की बातें सुनकर उसकी दादी भी वहाँ आ गई थीं।
"क्या बातें हो रही है, इतना शोर किस बात का है?"
"अरे माँ ये देखो न सुवब्रत के लिए कितने अच्छे घर की लड़कियों के रिश्ते आए हैं"
सुवब्रत की माँ उसकी दादी को वो तस्वीरें दिखाती हैं।
"एगुलु खूब शुंदर" दादी ने तस्वीर देखते हुए कहा कि ये बहुत सुंदर थीं ।
"सुवब्रत लड़कियाँ वाकई बहुत सुंदर हैं, एक बार देख तो"
"दादी मैं कहाँ मना कर रहा हूँ, बस मुझे अभी शादी नहीं करनी" सुवब्रत ने जवाब दिया ।
"शारदा तू समझी नहीं, अपने सुवब्रत को शायद लव मैरिज करना है इसलिए वो टाल रहा है" दादी सुवब्रत को छेड़ते हुए बोलीं ।
"क्या माँ जवान बेटे के सामने आप भी क्या सब..."
एक तरफ जहां सुवब्रत की माँ और दादी उसे शादी के लिए मना रहीं थीं वहीँ जलपाईगुड़ी से मीलों दूर देश की राजधानी दिल्ली के एक घर में कुछ अलग माहोल था| वो घर रिटायर्ड कॉल्नेल परितोष रॉय का था | कॉल्नेल परितोष अपने ज़माने के जांबाज़ सेना के अधिकारी थे | अभी कुछ साल पहले ही तो उनका रिटायरमेंट हुआ था | लेकिन जबसे रिटायर हुए थे इनका मिजाज़ कुछ ज़्यादा ही चिढ़चिढ़ा हो गया था | स्वाभाविक भी है, किसी आसमान की चिड़िया को कैद कर दो तो वो जिस तरह फडफडाएगी ठीक उसी तरह इस जांबाज़ अफसर को भी अब दिन भर घर पर ही रहना पड़ता था और इसी वजह से वो ऐसे हो गए थे | थोडा बहुत घूम लिया, खरीददारी कर ली लेकिन उसके बाद उनके लायक कोई काम बचता ही नहीं था, इसी बात से चिढ जाते थे परितोष | एक और वजह थी और वो थी उनके दोनों बच्चे, बिकाश और नंदिनी | बिकाश भी पढ़ लिखकर उन्हीं की तरह सेना में जाना चाहता था लेकिन उसकी ये तमन्ना पूरी नहीं हुई, पहले उसे घर की ज़िम्मेदारी के लिए प्राइवेट कंपनी में काम करना पड़ा और फिर उम्र ने उसे इजाज़त नहीं दी, सेना में भारती होने की उम्र भी तो कम चाहिए होती है, जो उम्र वो पार कर चुका था | लेकिन पिछले ही साल कुछ सोचकर बिकाश ने अपनी नौकरी छोड़ दी | देश के लिए काम करने का जज़्बा उसके मन से गया नहीं | इसलिए एक पूरे साल मेहनत करके उसने सिविल सर्विसेस की तैय्यारी की और सेलेक्ट भी हो गया | बिकाश की ट्रेनिंग अब पूरी हो चुकी है , और अब वो वापस दिल्ली भी आ रहा है अपनी पहली पोस्टिंग से पहले अपने परीवार से मिलने |
परितोष जी पूरे कमरे में यहां से वहां चक्कर लगा रहे थे। इतने में दरवाज़े पर आहट होती है और वो जल्दी से जाकर दरवाज़ा खोल देते हैं। देखते हैं सामने बिकाश खड़ा था। अपने बेटे को नीचे से ऊपर पूरा देखने के बाद वो हाथ बांधकर खड़े हो गए।
"कितने बजे का बोला था, और कितना बजे आ रहा है तुम? अपना की शमय गुरुत्ब बुझेन?" अभी तो बिकाश ने घर में क़दम रखा भी नहीं था कि परितोष ने उसे फटकार लगाते हुए पूछा कि समय की उसे कोई परवाह है भी या नहीं?
"बाबा, तुमि एकदम इम्पॉसिबल" उसने सर हिलाते हुए जवाब दिया। बिकाश अपना सूटकेस अंदर खींचकर लाता है और अंदर आते हुए उसपर फिर तानों की बरसात होने लगी।
"की इम्पॉसिबल? बाबा है तुम्हारा, कब से वेट कर रहा है पता भी है तुमको"
"बाबा एटा की? मैं अभी अभी तो आया हूँ और आप घुसते ही मुझपर चिल्लाने लगे बाबा" बाबा की बात पर बिकाश सर पकड़ते हुए बोला।
"तो क्या करना चाहिए? पूजा करना चाहिए, देखो तुम अधिकारी होगा अपने दफ़्तर में, ऐ अमार घर होय, इसलिए इधर अफ़सरगिरी नहीं चलेगी समझा, जबसे आई ए एस बने हैं, पता नहीं क्या समझने लगा है खुदको" परितोष झल्लाते हुए बोला।
"बाबा मैं कहीं का राजा क्यों न बन जाऊं रहूंगा तो आपका लाडला ही न " हस्ते हुए बिकाश ने जवाब दिया और फिर झुककर पैर छू लिए ।
"इशबर तोमार मोंगल कुरुक " अपने बेटे के सर पर हाथ फेरते हुए परितोष ने उसे आशीर्वाद दिया और फिर प्यार से उसे गले लगा लिया।
"बिकुली कहाँ है बाबा?" बिकाश ने पूछा।
"आती ही होगी, यूनिवर्सिटी गई है थोड़ा काम से" बाबा ने जवाब दिया ही था कि किसीने दरवाज़े पर घंटी बजाई ।
जैसे ही घर के नौकर ने दरवाज़ा खोला एक लड़की दौड़ते हुए अंदर आई और बिकाश को देखते ही उसने उसे गले लगा लिया । बिकाश ने भी प्यार से गाल खीचते हुए उस से पूछा "कैसी है मेरी अकुली बिकुली ? "
जैसे ही उस लड़की ने ये सुना वो मुँह बनाते हुए उस से अलग हुई और कहा "बाबा देखो न दादा को अभी आये और अभी मेरी टांग खींचना चालू कर दी"
बिकाश को उसका चहरा देखकर हंसी आ गई। ये देखकर तो 'बिकुली' और चिढ़ गई ।
"क्या दादा!"
"अच्छा ठीक है रोने की ज़रूरत नहीं है, देख तो मैं तेरे लिए क्या लाया हूँ" बिकाश बैग खोलते हुए बोला।
बिकाश ने एक शॉल उसे उढा दिया और फिर बाबा को भी एक स्वेटर दे दिया।
"ये मेरे लिए है?" बिकुली बोली ।
"हाँ, ये मेरी बिकुली के लिए है"
"बाबा देखो न"
"बिकाश, नंदिनी को और परेशान मत करो, उसे बिकुली मत बुलाओ, उसको उसके सही नाम से बुलाओ" परितोष ने कहा।
"हैं, देखा" नंदिनी बोली ।
"हाँ, उसे उसके असली नाम से बुलाओ, रागी बुलाओ रागी " परितोष ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा।
"बाबा आप भी..."
"हाँ तो और क्या कहूँ, कितना गुस्सा करती है आजकल"
"सारा का सारा आपका दिया हुआ है" नंदिनी झट से बोली ।
तभी वहाँ एक आदमी आया और उसने कहा " साहब, खाना लग गया है"
"अरे गोपाल, कैसे हो" बिकाश ने पूछा |
"मैं ठीक हूँ भैया, चलिए खाना खा लीजिये"
"भई वाह! आते ही गोपाल तेरे हाथ का खाना, बहुत मिस किया रे"
इतना कहकर तीनो डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ जाते हैं, बिकाश नंदिनी और परितोष अपने हाथ धोकर आते हैं और फिर गोपाल तीनो को खाना परोसता है।
खाना खाते खाते परितोष ने सवाल किया " तो कब की जोइनिंग है?"
"अगले हफ़्ते बाबा"
"और जाना कहाँ है?"
"बाबा वो... जलपाईगुड़ी" बिकाश झिझकते हुए बोला |
"क्या? जलपाईगुड़ी? अरे फॉर्म ठीक से नहीं भरा था क्या? इतना दूर पोस्टिंग क्यों दिया है तुझे?"
"वो बाबा मैंने पहला जो ऑप्शन दिया था वो नहीं मिल पाया, दूसरा बंगाल ही लिखा था तो..."
"सत्यानाश ! इसलिए बोलता हूँ कि फॉर्म वगेरह मुझसे पूछकर भरा करो, लेकिन नहीं...अब मिल गया न इतनी दूर पोस्टिंग" परितोष ने चिढ़ते हुए कहा।
"बाबा अब इसपर मेरा तो कोई ज़ोर नहीं है ना और फिर जलपाईगुड़ी में दिक्कत क्या है बाबा, मेरे बचपन में हम वहीं तो रहा करते थे"
"हाँ पर तबकी बात अलग थी, और अब सब अलग है, देखो, मैं तुम्हारे साथ नहीं चलने वाला बस और न ही नंदिनी जाएगी" परितोष ने कड़क स्वर में कहा।
"हाँ ये भी ठीक है बाबा, आप दोनों यहीं रहिये मैं अकेला चला जाऊंगा"
"क्या अकेला चला जाऊंगा? तुम्हारा ख़याल कौन रखेगा वहां?"
"पर बाबा, मैं आप लोगों को साथ कैसे ले जा सकता हूँ, आपका यहीं सब कुछ है, बिकुली का भी तो अभी ग्रेजुएशन खत्म हुआ है, उसे एमबीए करना है, वो यहीं करेगी तो उसके लिए अच्छा रहेगा" बिकाश समझाते हुए बोला।
"अरे और तुम्हारा क्या..."
परितोष कुछ बोल पाता इस से पहले ही नंदिनी बीच में बोल पड़ी "बाबा, दादा एटा की? आपलोग आपस में ही बहस करने लगे, मेरी भी तो सुनो"
परितोष और बिकाश उसकी तरफ देखकर चुप हो गए ।
"बाबा, एमबीए तो करना है, लेकिन मानो फॉरेन से एमबीए करना है तो वर्क एक्सपीरियंस की ज़रूरत होगी, इसलिए मैं पहले एक दो साल काम करना चाहती हूं"
"हाँ तो तू यहाँ कर न जॉब, उसमे क्या "
नंदिनी बिकाश की बात काटते हुए बोली "दादा, कल आपने जब अपनी पोस्टिंग के बारे में बताया था फोन पर तभी मैंने मेरी वो सहेली है न रजनी , वो जलपाईगुड़ी की रहने वाली है, उस से बात की थी, कहती है की वहां के मुखर्जी सुवब्रतनाथ को एक मेनेजर की ज़रूरत है, बस फिर क्या मैंने पहले ही अपना बायोडाटा उन्हें मेल कर दिया और आज ही जवाब आया है की मैं वहां काम कर सकती हूँ "
"इतना सबकुछ तूने कर लिया और बताया भी नहीं बिकुली? बिकुली तू सच में बिकूली है...अरे कैसे रहेगी तू वहां ? और..."
नंदिनी ने फिर बात काटते हुए कहा "बस केयू किचू बोलबे ना, मैंने फैसला ले लिया तो ले लिया "
"हैं? दोनों भाई बहन मिलकर सब फैसला ले लो, बाप को कुछ समझा भी है या नहीं?" परितोष बीच में बोला |
"बाबा आप भी न... इसमें सब की भलाई है, दादा का और मेरा काम हो जाएगा आप जलपाईगुड़ी के अपने दोस्तों के साथ घुल मिल जाओगे, सबके लिए अच्छा होगा बाबा "
"एकतरह से नंदिनी की बात ठीक है बाबा" बिकाश ने कहा |
"ठीक है, भाई बहन दोनों चले जाओ , आमी आशबो ना , मैं नहीं आऊंगा " इतना कहकर परितोष खाने की थाली छोडकर उठकर चला जाता है |
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