हमसफ़र ख़ामोश राहों के
कहने को उनके पास भी कुछ ना था
कहने को हमारे पास भी कुछ ना था
थी तो बस खामोशी
जो एक अनसुनी दीवार बनके खड़ी थी
ख़ामोश थे वो भी
ख़ामोश थे हम भी
इस ख़ामोशी के लम्हों में भी
साथ थे हम, दो मुसाफिर
राह पे चले जा रहे थे
बिना कुछ कहे
बिना कुछ सुने
बस चले जा रहे थे
एक अनदेखी मंज़िल की ओर
अनजान थे हम
हमारी मंज़िल थी अनजानी
बिखरी हुई
पुरानी थी हमारी राह
फिर भी एक दूसरे के साथ
लग रही थी नई
इस नई सी राह पर
एक सफ़र नया सा था
मिलकर तय कर रहे थे दोनों
बिन कुछ बोले
बिन कुछ सुने
हमसफ़र बन चुके थे दोनों
A poem with cchinu
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