Chapter 26 - Palak (Part 1)

Dear Readers, how are you?
Apologies for being late. But I'm back with new a chapter. Actually, now readers and friends have reduced from here. So I don't feel like updating much here. But if you want the updates of this story to come soon then show this story lots of love with your comments, likes and shares.
I realised that today is Mother's Day and this is the best day to update this chapter which can bring you a unique wave of emotions with joyful touch.
I hope you will enjoy the piece of joy & love. 💖

And Happy Mother's Day to you & your beautiful mothers.! 💐💖😇

कहानी अब तक: "शुक्रिया, चंद्र। ये सारी बातें मुझे बताने के लिए।" पलक की बात सुनते ही मेरे होठों पर भी मुस्कान आ गई। "मगर राणा सूर्यभान सिंह का क्या हुआ? और उद्धम सिंह वो कैसे राणा बना?" और अब कहानी से जुड़े अपने सवालों के साथ उसकी नज़रे मुझ पर उठी थी।
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रविवार शाम 6:45 बजे।
सेमिनार के लिए जाने से पेहले इस पैलेस नयनतारा में ये मेरा आंखरी दिन था। और मैं बस यहीं चाहती थी कि आज मुझे चंद्र के साथ ज़्यादा समय मिल पाए, ताकि हम निसर्व की कहानी को पूरा कर सके। और मुझे खुशी थी कि हम ऐसा कर पाए थे।
आज सलोनी और चंद्र के साथ गुजरे वो पल मेरे लिए बहोत ख़ास थे, जिन्हें मैं कभी भूल नहीं सकती थी। सलोनी की शरारत। पैकिंग में मेरी हेल्प करते हुए उसका वो हंसी-मज़ाक। और... चंद्र की वो ख़ामोश बाते। उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा। ये यादें हमेशा मेरे दिल में रहने वाली थी। और उन पलों को फिर याद करते ही मेरे होठों पे हल्की मुस्कान आ गई।
आज दिन में सलोनी के मौजूद होने की वजह से मैं चंद्र से बात नहीं कर पाई। पर इसके बावजूद भी मुझे चंद्र के साथ इतना समय मिल पाया कि मैं निसर्व की कहानी का अंत जान पाऊं।
चंद्र बिना रूके लगातार मुझे कहानी की हर बारीकी बताता रहा और मैंने भी उतनी ही बारीकी से उसकी हर बात अपनी डायरी में समेट ली। मगर कहानी के अंत में एक सवाल ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। और मैं चंद्र से उसका जवाब मांगने से नहीं रूक पाई।
"राणा सूर्यभान सिंह का क्या हुआ? और उद्धम सिंह... वो कैसे राणा बना?" जवाब जानने की उम्मीद में मेरी नज़रे चंद्र पर ठहरी थी।
चंद्र की नज़रे मुझे ही देख रही थी। "डोंट वरी। तुम्हें तुम्हारे हर सवाल का जवाब मिलेगा। लेकिन मुझे लगता है अब तुम्हें डिनर की तैयारी कर लेनी चाहिए। हम इसके बारे में बाद में बात करेंगे।" आज उसकी आंखों में एक अजीब सी खुशी झलक रही थी। और उसके होठों पे एक अजीब सी हल्की मुस्कान थी। एक शरारती मुस्कान...
क्या चंद्र को मुझे इस तरह इंतज़ार करवाना अच्छा लग रहा था... क्या सच में मुझे यूं बेकरार देखकर उसे मज़ा आ रहा था! या कहीं चंद्र ये तो नहीं सोच रहा कि ये लड़की कितने सवाल करती है। इसके सवाल तो ख़त्म ही नहीं होते... हर वक्त सवाल पूछ कर इरिटेट करती है...
लेकिन सच कहूं तो, अगर वो ये सोच भी रहा हो तो मैं इससे काफ़ी खुश थी। क्योंकि इस वजह से उसके चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान खिल उठी थी। चंद्र, तुम मुस्कुराते हुए सच में बहोत अच्छे लगते हो। हमेशा ऐसे ही मुस्कुराते रहना।
मेरे आंखों के सामने चुटकी बजते ही, "कहां खो गई?" मैंने चंद्र की ओर देखा।
"नहीं वो मैं बस..." अपने खयालों की दुनियां से बाहर आते ही, "तुम सही हो। मुझे डिनर की तैयारी कर लेनी चाहिए। वैसे भी कल सुबह जल्दी निकलना है।" मैं थोड़ी हड़बड़ा गई।
"ठीक है। चलो, डिनर की तैयारी करते हैं।" चंद्र के वो शब्द सुनते ही --
"क्या... तुम! खाना बनाने में हेल्प करोगे?" मैं हैरान रह गई। और मेरी हैरत भरी नज़रे उसे घूर रही थी।
"हां, क्यूं? तुम्हें क्या लगता हैं -- मैं ये नहीं कर सकता?" चंद्र की सवालिया नज़रे मुझे घूर रही थी।
क्या तुम सच कह रहे हो या मेरा मज़ाक उड़ा रहे हो...
"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।" मैं नज़रे चुराते हुए तुरंत खड़ी हो गई। "चले?" और हड़बड़ाहट में किचन की ओर बढ़ गई।

अगले ही पल मैं किचन में थी। पर मैं चंद्र को अपने साथ देखकर चौंक गई। वो सच कह रहा था। वो हेल्प करने के लिए सचमुच में मेरे पीछे किचन तक चला आया।
"तो अब बताओ तुम क्या खाना चाहोगी?" गैस स्टोव के पास जाते ही चंद्र तुरंत खाना बनाने की तैयारी में जुट गया।
वो अपनी बात को लेकर कॉन्फिडेंस था। यानि उसने जो कहा वो मज़ाक नहीं बल्कि सच था...
चंद्र की जादुई नज़र पड़ते ही प्रेसर कूकर स्टोव पर आ गया और स्टोव की आग खुदबखुद जल उठी। मेरे बीना कहे उसने फोड़नी (तड़का) के सारे इंग्रेडिएंट्स गर्म होने के लिए रख दिए।
इतना सब करने के लिए ना तो उसे अपनी जगह से हिलना पड़ा या ना उसे किसी चीज़ को हाथ लगाने की ज़रूरत पड़ी। बस चंद्र के सोचते ही हर काम जादू की तरह खुदबखुद होता गया। और मैं हैरान होकर अपने होठों पर मुस्कान लिए बस उसे निहारती रही।
"पलक?" चंद्र की आवाज़ सुनते ही --
"हां..." हड़बड़ाहट में मेरे मूंह से निकला।
"तुम क्या खाना चाहोगी, भाजी-चपाती या वेज-पुलाव?" चंद्र की हर बात मुझे एक नया सरप्राइज दे रही थी --
"जो तुम चाहो..." जिस वजह से मैं कोई फ़ैसला नहीं कर पाई।
तुम मेरे लिए इतना सब कुछ क्यों कर रहे हो? आज तुम्हारा बिहेवियर इतना बदला हुआ क्यों है!? क्या कुछ हुआ है, जो तुम मुझसे छुपाना चाहते हो? या फिर तुम भी मेरे लिए वहीं मेहसूस करने लगे हो जो मैं कर रही हूं!?
"ठीक है। तो फिर वेज-पुलाव कैसा रहेगा?" एक बार फ़िर मैं निशब्द थी -- "चाहो तो भाजी-चपाती भी बना सकता हूं। पर वो क्या है कि, शायद चपाती गोल ना बने..." पर चंद्र ने कहते ही शर्मा कर नज़रे झुका ली।
तुम्हारे इस मुस्कान की चाहे जो वजह हो। लेकिन तुम्हें मुस्कुराते देखकर मुझे बहोत अच्छा लग रहा है। काश ये समय रूक जाए। ये खुबसुरत लम्हा यूंही थम जाएं मेरे पास। और तुम भी यूंही रहे जाओ... मेरे पास। मुस्कुराते रहो। खुश रहो...
कुछ समय बाद चंद्र के ज़ोर देने पर मैं डाइनिंग टेबल पर उसका इंतजार कर रही थी। हमारा स्पेशियल पुलाव तैयार था, जिसकी खुश्बू से सच में मेरी भूख बढ़ती जा रही थी। और कुछ ही पलों में मेरा इंतज़ार ख़त्म हुआ।
चंद्र का बनाया स्पेशियल गर्मागर्म वेज-पुलाव मेरी प्लेट में परोसा जा चुका था, जिससे काफ़ी लाज़वाब सुगंध आ रही थी। और गर्म भाप निकल रही थी।
खाने से आने वाली सुगंध से अब मुझसे और रुका नहीं जा रहा। इसलिए मैंने जल्दी से प्लेट अपनी तरफ़ ली और तुरंत चम्मच से एक निवाला उठाया।
उस वक्त चंद्र मेरे सामने ही मेरी पास वाली खुर्शी पर बैठा था। और उसकी बेताब नज़रे ख़ामोशी से मुझे ही देख रही थी। मैं समझती थी कि वो ये जानने के लिए काफ़ी उतावला था कि खाना कैसा बना है... और क्या मुझे उसका बनाया खाना पसंद आया...
"अहम्म... बहोत ही स्वादिष्ट है!" पेहला निवाला लेते ही मेरे मुंह से निकल गया। इसी के साथ मेरे चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान आ गई।
मुझे खुश देखते ही चंद्र के होठों पर भी राहत भरी मुस्कान आ गई। सच कहूं तो उस वक्त मैं हैरानी और खुशी एक साथ महसूस कर रही थी। मुझे बहोत अच्छा लग रहा था। मेरे आई-बाबा के बाद पेहली बार किसी ने मेरा इतना खयाल रखा था।
वैसे लोगों को परेशान करने वाले भूत-प्रेत, गोबलीन और आत्माओं के बारे में तो मैंने बहोत सुना था। लेकिन आज पेहली बार चंद्र जैसी नेक आत्मा को देख रही थी, जो किसी को खुद खाना बना कर खिलाए। चंद्र के इस खयाल से एक पल के लिए मेरी हंसी छूट गई।
"तुम्हें इतना अच्छा खाना बनाना किसने सिखाया?" अपना खाना जारी रखते हुए, "सच कहूं तो कभी मैं भी इतना अच्छा पुलाव नहीं बना पाई।" मैंने सवाल किया।
"अपनी आई से। जब उन्हें पता चला कि मैं... हायर स्टडीज के लिए लंडन जा रहा हूं तो उन्होंने सबसे पहले मुझे चावल पकाना सिखाया..." मेरे सवाल करते ही चंद्र की पलके झुक गई -- "ताकि अगर मुझे वहां का खाना पसंद ना आए या कोई दिक्कत हो तो कम से कम मुझे भूखा ना रहना पड़े।" अपने पुराने दिनों की याद करते ही उसके चेहरे पर फीकी मुस्कान आ गई।

"दुनियां की सभी आई ऐसी ही होती है।" चंद्र की बात सुनकर, "कोई और आपकी भूख के बारे में सोचे या ना सोचे। लेकिन एक आई अपने बच्चे की भूख के बारे में कभी नहीं भूलती।" मुझे अपनी आई की याद आ गई। वो भी बिल्कुल ऐसी ही थी।
मेरी आई भी मेरे मना करने के बावजूद कॉलेज जाते वक्त मुझे हमेशा दो टिफिंस थमा देती थी -- क्यूंकि उन्हें पता था कि मेरे दोस्तों को उनके हाथ का खाना बहोत पसंद था। और वो मेरा टिफिन खत्म कर देते थे।
आज भी मुझे उनकी बहोत कमी मेहसूस हो रही थी। मगर इस पर अफ़सोस ज़ाहिर करने के बजाय चंद्र की तरह अपने आई-बाबा की अच्छी यादों को ताज़ा करते हुए आखिकार मैंने अपना खाना ख़त्म किया और किचन की सफ़ाई करने के बाद मैं सीधे ऊपर वाले कमरे में चली गई।

रात 8:30 बजे।
क़रीब आधे घंटे से तेज़ बारिश हो रही थी। उस वक्त मैं अपने कमरे में थी जब बारिश की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी। बाहर तेज़ हवाएं चल रही थी और बारिश की रिमझिम आवाज़ लगातार मेरे कानों में गूंज रही थी। ठंडी हवाएं और बारिश के चलते मौसम सर्द हो गया था।
किचन से लौटते वक्त चंद्र अचानक कहीं चला गया था। तब से मैं उसका इंतजार कर रही थी। क्योंकि अब तक उसने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया था।
कल सुबह मुझे सेमिनार के लिए निकलना था। इसलिए आज मैं जल्दी सोना चाहती थी। लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। इसलिए मैंने अलमारी से नॉवेल निकाल ली। और बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं नॉवेल पढ़ने लगी, जो कई महीनों से मेरे पास पड़ी थी। मगर मैंने वो आधे में छोड़ दी थी।
दरअसल, ये नॉवेल मुझे गीता ने मेरे बर्थ डे पर गिफ्ट की थी। ये कहानी एक बोगलिन और उसके प्यार की है। वैसे ये कहानी काफ़ी इंट्रेस्टिंग है। उनकी कहानी मेरी ज़िंदगी से काफ़ी मिलती-जुलती है।
लेकिन लव स्टोरीज मुझे कुछ ख़ास पसंद नहीं थी। इसलिए मैं इस नॉवेल को कभी पूरा नहीं पढ़ पाई। मगर काफ़ी समय बाद चंद्र की वजह से मैं काफ़ी कुछ नया अनुभव कर रही थी। मुझमें नई उमंग जागी थी। और इसलिए मेरा मन किया कि मैं ये कहानी पूरी करू।
बाहर  रिमझिम  बारिश,  ठंडी  हवाएं,  और  गर्म  बिस्तर  के  साथ  एक  अच्छी  किताब...  बस  सुकून  के  लिए  और  क्या  चाहिए...
धीरे-धीरे अब सच में मुझे किताब पढ़कर अच्छा लगने लगा था। शुरुआत में चाहे मुझे इस नॉवेल की कहानी उबाव लगी हो। मगर पढ़ते हुए कहानी में मेरी दिलचस्पी बढ़ने लगी थी। पन्ने दर पन्ने के साथ मैं उस कहानी की गहराई में डूबती जा रही थी। तब क़रीब आधे घंटे बाद पढ़ते हुए अचानक मुझे आभास हुआ कि कमरे के दरवाज़े पर कोई है। और मैं बिस्तर से उतरकर दरवाज़े के पास गई।
पता नहीं क्यूं पर उस वक्त मुझे थोड़ा डर लग रहा था, जैसे अगर वहां चंद्र ना होकर कोई और हुआ तो मैं क्या करूंगी... और इसी कशमकश के साथ मैंने कांपते हुए हाथ से दरवाज़ा खोला।

To Be Continued...

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कैसा लगा ये भाग comment में ज़रूर बताएगा। उम्मीद करती हूं कि आपको ये भाग पसंद आया होगा। अपना प्यार, कॉमेंट और लाइक यहां पर ज़रूर दे। हर बार आपके फीडबैक मेरे लिए टॉनिक है।

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अगले अपडेट तक टेक कैर! सायोनारा...! 👋🏻💖
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